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३८५. पत्र: विलियम डॉलको

साबरमती आश्रम
१९ अप्रैल, १९२६

प्रिय श्री डॉल,

सोराबजीने मुझसे मिलकर अपनी कठिनाइयाँ बताई। आप जानते ही हैं कि उनपर बहुत कर्ज है। वे कर्जके तौरपर अपने पिताकी जायदादसे मदद चाहते हैं। वे सूद देना नहीं चाहते, लेकिन पूरी जमानत देने को तैयार हैं। जमानत किस प्रकारकी होगी, यह वे खुद ही बतायेंगे। सोराबजीका कहना है कि अगर उनके पिता जीवित रहते और अगर सोराबजीने शादी करना तय कर लिया होता तो वे स्वयं उनका कर्ज उतार देते। मैं उनकी बात सच मानता हूँ। उन्होंने मुझे बताया है कि वास्तवमें अपनी मृत्युसे कुछ दिन पहले रुस्तमजीने उनको ऐसा आश्वासन भी दिया था, इतने आतुर थे वे इनके विवाहके लिए। अब सोराबजीकी सगाई हो गई है और उन्होंने बड़ी समझदारीके साथ ऐसा तय किया है जबतक सारे कर्ज चुक न जायें, वे शादी नहीं करेंगे।

देखता हूँ, न्यासपत्रको एक धाराके अनुसार न्यासियोंको यह अधिकार है कि वे अपनी इच्छानुसार मुझे उपयोग करनेके लिए जितनी रकम देना जरूरी समझें, दे सकते हैं। मैंने न्यासपत्रको ध्यानसे नहीं पढ़ा है और न मैं अपने-आपको इस बातका फैसला करनेके लिए उपयुक्त व्यक्ति ही मानता हूँ कि मैं उस कोषका उपयोग कानूनन कर सकता हूँ या नहीं, जो प्रस्तावित न्यासके अधीन मेरे जिम्मे रखा गया है। लेकिन, अगर आपके विचारसे, मैं कानूनन ऐसा कर सकता हूँ और अगर अधिकांश न्यासी इस प्रस्तावसे सहमत हों तो मैं न केवल सोराबजीके लिए कुछ प्रबन्ध कर देने को तैयार हूँ, बल्कि चाहूँगा कि कोई प्रबन्ध कर ही दिया जाये। कारण, जानता हूँ कि अगर उनके पिता जीवित होते तो वे अवश्य चाहते कि मैं उनके लिए ऐसा कोई प्रबन्ध कर दूँ।

हृदयसे आपका

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४७७) की माइक्रोफिल्मसे।