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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

प्रेम या धर्म?[१]

आपके सामने जो धर्म-संकट आ खड़ा हुआ है उसका निर्णय आप स्वयं ही कर सकते हैं। यदि मांस छोड़ देना आपको धर्म-रूप जान पड़े तो आप किसी तरह भी अपनी माँके स्नेहके आगे न झुकें। यदि आप प्रयोग करनेके विचारसे मांसाहारका त्याग करना चाहते हों तो माताको दुखी करना पाप ही माना जायेगा।

प्रेमियोंकी उलझन[२]

जहाँ शुद्ध प्रेम होता है वहाँ अधीरताकी गुंजाइश नहीं होती। शुद्ध प्रेम दैहिक नहीं, बल्कि आत्माका ही सम्भव है। दैहिक प्रेम तो विषय-भोग ही है। उसकी अपेक्षा जातिका बन्धन ही विशेष महत्त्वका है। आत्मिक प्रेममें किसी तरहका बन्धन आड़े नहीं आता। परन्तु इस प्रेममें तपश्चर्या होती है और धैर्य तो इतना होता है कि वह मृत्यु-पर्यन्त वियोगकी भी परवाह नहीं करता। आपका पहला काम तो यह है कि आप अपनी कठिनाइयाँ बुजुर्गोंके सामने रखें और जो-कुछ वे कहें उसे आप सुनें और उसपर विचार करें। आखिर जब यम-नियमादिका पालन करनेसे आपका अन्तःकरण शुद्ध हो जाये तब उससे निकलनेवाली आवाजका आदर करना ही आपका धर्म होगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ४-४-१९२६

३८१. विविध प्रश्न [—४]

श्राद्ध और मुक्ति

मैं श्राद्धके मामलेमें तटस्थ हूँ। उसकी कोई आध्यात्मिक उपयोगिता हो भी तो उसकी मुझे जानकारी नहीं है। यह बात भी मेरी समझमें नहीं आती कि श्राद्धसे मृतककी सद्गति होती है। मृत देहके फूल गंगाजीमें प्रवाहित करनेसे एक प्रकारकी धार्मिक भावनामें वृद्धि होती होगी, उसके अतिरिक्त यदि कोई अन्य लाभ होता तो वह मैं नहीं जानता।

मेरी राय तो यह है कि सगर राजाकी कहानी एक रूपक है, ऐतिहासिक नहीं। नारायणके नामके उच्चारणके बारेमें जो बात कही जाती है वह श्रद्धा बढ़ानेके लिए कही जाती है। यह बात मेरे गले नहीं उतरती कि उक्त मन्त्रोच्चारका अर्थ समझे बिना भी यदि कोई व्यक्ति लड़केका नाम नारायण होनेकी वजहसे मृत्युके

  1. पत्र-लेखक एक मुसलमान युवक था, जिसे मांसाहारसे बड़ी अरूचि थी, किन्तु उसकी माँ चाहती थी कि वह मांस खाये।
  2. पत्र-लेखक युवक-युवती भिन्न जातिके होते हुए भी एक-दूसरेको चाहने लगे थे और विवाह कर लेना चाहते थे। किन्तु वे अपने बुजुर्गोंको नाराज़ करके विवाह नहीं करना चाहते थे।