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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

आबोहवा बदलनेके लिए पुरी क्यों जाऊँ?[१]

आबोहवा बदलनेके लिए यदि मुझे समुद्र-तटपर जाना हो तो मैं पुरी क्यों जाऊँ? मेरे जन्मस्थानके पास ही एक छोटा-सा गाँव है, में वहाँ क्यों न जाऊँ? वहाँ जो शान्ति और ग्राम्य जीवनका लाभ मिलेगा वह पुरीमें, जहाँ एक ओर धनी लोगोंके घूरते हुए बंगले तथा दूसरी ओर मंदिरके आसपासके यात्रियोंसे मुट्ठी-भर गन्दे चावल पानेके लिए धक्कम-धक्का करते हुए अकाल-पीड़ित लोग देखनेको मिलेंगे, कैसे मिलेगा? पुरीको देखकर उसका तत्कालीन इतिहास ही नहीं, अपनी भयंकर अवनतिका इतिहास भी याद आता है। क्योंकि आज यह स्थान हमारी स्वतन्त्रताको दबानेके लिए, हमसे वेतन लेकर खानेवाले फीजियोंका आरोग्य-भवन बन गया है। इन सब विचारोंसे मुझे बहुत कष्ट होता है। जब मैं वहाँ था तो मित्रोंने मुझे समुद्रके किनारे एक सुन्दर स्थानमें टिकाया था और अगाध प्रेमसे मुझे स्नान कराया था, किन्तु फिर भी मुझे चैन नहीं पड़ा। वहाँकी फौजी बैरकें, भूखों मरते उड़िया और वहाँके पत्थर-दिल धनियोंके विचारसे मुझे जो मनोवेदना होती थी, उसका वे कैसे और क्या उपाय करेंगे?

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २८-३-१९२६

३८०. विविध प्रश्न [—३]

एक वकीलकी उलझन[२]

रामनाम लेते हुए आनन्दपूर्वक रहनेमें भूलकी कोई बात नहीं है। धन प्राप्त नहीं होता यह भी कोई दुःखकी बात नहीं है। धर्मकी रक्षा होती है या नहीं, यह भी आप स्वयं ही जान सकते हैं। आपने बकरेको निकाल कर ऊँटको प्रवेश देनेकी जो बात कही सो ठीक नहीं है। यह मानना भयंकर भूल है कि विषय-भोग करनेकी अपेक्षा स्वप्नदोषसे अधिक कमजोरी आती है। कमजोरी तो दोनोंसे ही आती है पर ज्यादातर तो विषय-भोगसे ही अधिक कमजोरी आती है। परन्तु परम्पराके कारण विषय-भोग हमें खटकता नहीं है; जबकि स्वप्नदोषसे मनको आघात पहुँचता है। इसलिए उसके कारण जितनी कमजोरी आती है हम उससे कहीं अधिक कमजोरीकी कल्पना कर

  1. एक बहनने आबोहवा बदलनेके खयालसे गांधीजीको जगन्नाथपुरी जानेका निमन्त्रण दिया था। यह उसीके उत्तरमें लिखा गया था।
  2. प्रश्नकर्ताने लिखा था कि चौदह वर्षसे अधिक समयतक अपना धंधा किया; वह नहीं चला। नौकरी की, पैसा नहीं मिला। बच्चे हैं। ब्रह्मचर्य-पालनका विचार बनता है तो स्वप्नदोष होता है और बकरा निकालकर ऊँटको प्रवेश देनेकी स्थिति बन बैठती है।...क्या ब्रह्मचर्य-पालनमें स्त्रीकी सहमति आवश्यक है?