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३७५. पत्र: मथुरादास त्रिकमजीको

साबरमती आश्रम
शनिवार, १७ अप्रैल, १९२६



चि॰ मथुरादास,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हें जितनी शक्ति चाहिए उतनी शक्ति आनेमें तो समय लगेगा। दिलीपको तुम उठा सको और उससे थकावट न हो, ऐसी स्थिति आनेमें समय लगेगा। मसूरी छोटी लाइनसे जानेकी बात तय की है। तुमसे मिलनेका लोभ फिलहाल छोड़नेकी बात सोचता हूँ। बम्बईके रास्ते जानेसे समय ज्यादा लगेगा, इतना ही नहीं; उसमें और भी विघ्न हैं। मैं तुम्हारे पास ठहरूँ तो फिर वहाँसे एक ही दिनमें नहीं निकल सकता। मसूरीसे लौटते हुए, यदि तुम देवलालीमें हुए तो देवलाली होकर आश्रम आनेकी बात सोचता हूँ। देवदासके साथ बातचीत करनेके बाद ऐसा मानता हूँ कि तुम देवलालीमें ही रहोगे। मसूरी आनेकी हिम्मत करो तो यह सचमुच मुझे अच्छा लगेगा। अलबत्ता, तारामतीको वहाँ लानेमें मुश्किल तो होगी लेकिन मसूरी पहुँचनेके बाद वहाँकी परिस्थिति देखकर तुम्हें इस विषयपर और लिखनेका विचार रखता हूँ। किन्तु यदि तुम स्वतन्त्र रीतिसे मसूरी जानेकी बात सोच सको तो जरूर चले आओ। उस हालतमें मेरे निर्णयकी बाट जोहनेकी कोई आवश्यकता नहीं है। जमनालालजी कल यहाँ आ रहे हैं; उनके साथ भी चर्चा करूँगा। यदि तुम आओ तो वहाँ रसोइया आदिको लानेकी जरूरत नहीं है। जुहुके अस्पतालसे तुम्हें डरका कोई कारण नहीं है। अभीतक तो यहाँसे २२ तारीखको निकल जानेका निश्चय है। मोतीलालजी, जयकर आदिको विचार-गोष्ठी मंगल, बुधको यहाँ होनेवाली है। इससे कदाचित् ढील हो जाये तो नहीं कहा जा सकता।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४७०) की माइक्रोफिल्मसे।

३७६. मेरी कामधेनु

मैंने चरखेको अपने लिए मोक्षका द्वार कहा है। मैं जानता हूँ इसपर कुछ लोग हँसते हैं। किन्तु जो मनुष्य मिट्टीका गोला बनाकर उसे पार्थिवेश्वर चिन्तामणि जैसा बड़ा नाम देता है और उसपर ध्यान एकाग्र करके उसके द्वारा परमेश्वरके दर्शनकी शुभाशा रखता है, मूर्तिकी महिमा न जाननेवाले उसकी भी तो निन्दा ही करते हैं। लेकिन क्या इस कारण आत्मदर्शनके लिए पागल वह मनुष्य ध्यान करना छोड़ देता है? नहीं; और वह अवश्य ही ईश्वरका साक्षात्कार करेगा जबकि उसकी निन्दा करनेवाले रह जायेंगे। उसी प्रकार यदि चरखेके प्रति मेरी भावना शुद्ध होगी तो चरखा मेरे लिए अवश्य ही मोक्षदायी सिद्ध होगा। रामधुन सुनते ही जो हिन्दू