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३७३. पत्र: चन्द्रकान्तको

साबरमती आश्रम
शनिवार, १७ अप्रैल, १९२६

भाईश्री चन्द्रकान्त,

आपका पत्र मिला और ५०० रुपयेका चेक भी मिला। माताजीको मेरी दलील पसन्द आई, यह जानकर खुश हुआ। इन ५०० रुपयोंका उपयोग मैं ऐसे व्यक्तियोंकी मददके लिए करूँगा जो अकाल पीड़ित हैं लेकिन थोड़ा-बहुत काम कर सकते हैं। चि॰ मनुकी तबीयत कुछ ठीक हुई है, यह खबर मुझे मिल गई थी। आने-जानेवाले लोगोंसे मैं उसकी तबीयतके बारेमें पूछता ही रहता हूँ। आपने विशेष रूपसे उसकी खबर भेजी इसलिए इस पत्रके साथ मैं उसे पत्र भेज रहा हूँ। यह उसे दे दीजिएगा।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४६७) की माइक्रोफिल्मसे।

३७४. पत्र: प्रभालक्ष्मीको

साबरमती आश्रम
शनिवार, १७ अप्रैल, १९२६

चि॰ प्रभालक्ष्मी,

मुझे तुम्हारा वह पत्र मिल गया था जिसमें तुमने अपने जीवनका वृत्तान्त लिखा है। उसे मैं कल ही पूरा पढ़ पाया हूँ। आज तुम्हारा दूसरा पत्र मिला है। तुम्हारी कहानी करुणाजनक है। नामधाम बताये बिना प्रसंगोपात्त उसका उपयोग करूँगा। मुझे लगता है कि जबतक कोई बहुत भारी कारण न हो तबतक वर्णोंका पालन करना ही अच्छा है। जहाँ पहलेसे ही हृदयमें ऐसे दाम्पत्य प्रेमको निषिद्ध मान लिया गया हो, वहाँ ऐसे प्रेमके लिए अवकाश नहीं हो सकता——वैसे ही जैसे भाई-बहनके बीच में। भक्तको भावनाके अनुसार ईश्वर साकार और निराकार दोनों ही माना जाता है। निराकारका ध्यान सच्चिदानन्द स्वरूपके सम्बन्धमें हो सकता है ऐसा मैं मानता हूँ। 'फलान्नाहार' शब्द बहुत कठिन और आडम्बरयुक्त हो जाता है। अन्नमें फलोंको मान लेना, यही सीधा रास्ता है। तुम खूब स्वस्थचित्त हो जाना।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४६९) की माइक्रोफिल्मसे