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३७१. पत्र: जयसुखलालको

साबरमती आश्रम
शनिवार, १७ अप्रैल, १९२६

चि॰ जयसुखलाल,

इसके साथ पत्रको पढ़ना। वहाँ यदि किसी आदमीकी जरूरत हो तो तुम वल्लभजीको रखना। मुझे उसका थोड़ा अनुभव तो है ही। तुम भी कदाचित् उसे जानते होगे। लगता है, रामदास जानता है। वल्लभजीको निभानेकी खातिर रखनेकी जरूरत नहीं है। आदमीकी जरूरत हो और वल्लभजी तुम्हारी नजरमें उपयुक्त हो तो हो रखना अन्यथा नहीं। यदि रखनेका विचार हो तो उसे सीधा पत्र लिखना और मुझे भी सूचित कर देना।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४६६) की माइक्रोफिल्मसे।

३७२. पत्र: मनुको

साबरमती आश्रम
शनिवार, १७ अप्रैल, १९२६

चि॰ मनु,[१]

तुम्हारी तबीयत बहुत खराब हो गई थी यह खबर मुझे मिल गई थी और तबसे जब-तब आने-जानेवालोंसे तुम्हारी तबीयतके बारेमें पूछ लेता था। अब तुम्हारी तबीयत ठीक हो गई है, यह मुझे स्वामी आनन्दने बताया था और आज भाई चन्द्रकान्तके पत्रसे इसकी पुष्टि हो गई है। मैं जब अस्पतालमें था तब तुम मेरी अनेक प्रकारसे सेवा करते थे, यह मैं भूला नहीं हूँ। तुम्हारी वह शानदार चाल और हँसमुख चेहरा भी नहीं भूला हूँ। भगवान तुम्हें बिलकुल नीरोग बनाये और देशसेवाके लिए दीर्घायु प्रदान करे।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४६८) को माइक्रोफिल्मसे।

  1. प्रोफेसर जे॰ पी॰ त्रिवेदीके पुत्र; देखिए "पत्र: हरिभाऊ गणेश पाठकको", १७५-१९२६; और "उसका रहस्य", २७-५-१९२६।