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३६०. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

साबरमती आश्रम
शुक्रवार, १६ अप्रल, १९२६

भाई श्री घनश्यामदास,

आपका खत और २६ हजार रुपयेका चेक मिला है। हिन्दु-मुसलमान झगड़ेके आपने जो प्रश्न पूछे हैं उसका उत्तर मैं देता हूँ, परन्तु अखवारोंके लिये नहीं। मैंने आपको कहा था कि आजकल हिन्दु जनतापर या तो हिंदु जनताके उस विभागपर, कि जो इन झगड़ोंमें दखल देता है, मेरा कोई असर नहीं है। इसलिए मेरे कहनेका अनर्थ हो जाता है। इसलिये मैं शांत रहना ही मेरा कर्त्तव्य समझता हूँ।

(१) जुलूस यदि सरकारने बन्द कर दिये हैं और कोई धार्मिक कार्यके लिये जुलूस आवश्यकता हो तो सरकारकी मनाई होते हुए भी जुलूस निकालना मैं धर्म समझँगा। परन्तु जुलुस निकालनेके आगे मैं मुसलमानोंकी मुश्किलकी[१] बात कर लूँगा। और इतने भी विनय करनेपर वह न माने तो मैं जुलूस निकालुँगा और वे मारपीट करें उसको बरदाश्त करूँगा। यदि इतनी अहिंसाकी मेरेमें शक्ति न हो तो मैं लड़ाईका सामान साथ रखकर जुलूस निकालुँगा।

(२) मुसलमान सईस ई॰ नौकरोंके बारेमें मैं किसीको केवल उसके मुसलमान होनेके कारण नहीं निकालुँगा। परंतु किसी मुसलमानको मैं नहीं रखुँगा जो वफादारी-से अपना काम नहीं करेगा, या तो मेरेसे उद्दंड बनेगा। मेरा ऐसा अभिप्राय नहीं है कि मुसलमान अन्य कोमोंसे जादे कृतघ्न हैं। ज्यादह लड़ाकु हैं यही बात मैंने उनमें देखी। किसी मुसलमानका मुसलमान होनेके कारण ही त्याग करना मुझको तो बहुत ही अयोग्य मालुम होता है।

(३) जो हिन्दु शांतिमार्गको नापसंद करता है या तो उसके लिये तैयार नहीं है, उसको लड़ाई करनेकी शक्ति हासिल कर लेनी चाहिये।

(४) यदि सरकार मुसलमानोंका पक्षपात करती है तो हिन्दुओंको बेफिकर रहना चाहिये। सरकारसे बेपरवा रहे। खुशामद न करें, परन्तु अपनी शक्तिपर निर्भर होकर स्वाश्रयी बनें। जब हिंदु इतना हिंमतवान बन जायगा तब सरकार अपने आप तटस्थ रह जायगी। और मुसलमान सरकारका सहारा लेना छोड़ देगा। सरकारकी मदद लेनेमें न धर्मका पालन होता है, न कुछ पुरुषार्थ बनता है। मेरी तो सलाह है कि आप इस चीजको तटस्थतासे देखें और कार्य करें। इसीमें हिंदु जातिका भला है, हिंदु धर्मकी सेवा है। यह मेरा दीर्घकालका——कमसे-कम ३५ वर्षका——अनुभव है। झघड़ा होनेके समय जिस शांतिसे और वीरतासे आपने काम किया वह मुझको बहुत

  1. यहाँ साधन-सूत्रमें यह शब्द ठीक पढ़ा नहीं जाता। प्रस्तुत शब्द अनुमानपर आधारित है।