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टिप्पणियाँ

  उपभोक्ताओंकी भी दशा इससे कुछ अच्छी नहीं है। उन्होंने भी उत्तरदायित्व की भावना खो दी है।

जब मैं फ्रांस किसी जलपानगृहमें बैठा हुआ अपने सूपमें काली मिर्चे डालता हूँ तब क्या क्षण-भरको रुककर यह सोचता हूँ कि जावामें किस बेचारे कुलीने जो किसी ज्वरसे पीड़ित रहा होगा और जिसे शायद बागानोंकी देख-भाल करनेवाले निर्मम अधिकारियोंके अपमानजनक और क्रूर व्यवहारका भी शिकार बनना पड़ा होगा, इन्हें इकट्ठा करनेमें कितना कष्ट झेला होगा?

लेकिन इस तथ्यपूर्ण पत्रसे और ज्यादा अंश उद्धृत करनेका लोभ मुझे संवरण करना चाहिए। मैंने जो नमूने पेश किये हैं, उन्हें देखकर अगर पाठकोंमें और अधिक जानने की जिज्ञासा जग पड़ी हो तो मैं उनसे कहूँगा कि वे मूल पत्र देखें। पाठक यह न समझें कि श्री ग्रेग सभी मशीनोंके खिलाफ हैं। वे मशीनोंकी बेकाबू बाढ़के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार हम अपने मनोवेगोंपर अंकुश रखते हैं और उनका नियमन करते हैं, उसी प्रकार हमें मशीनोंके उपयोगका भी नियमन करना चाहिए और उसकी मर्यादाओंका पालन करना चाहिए। मशीनोंका उपयोग वहींतक ठीक है, जहाँतक उससे सबका हित-साधन होता है। {{c|कैसे सहायता करें? लन्दनमें रहनेवाले एक भारतीय सज्जन लिखते हैं:

मुझसे हर आदमी पूछता है कि अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इटली और इंग्लैंडमें रहनेवाले भारतको अपना उद्देश्य पूरा करनेमें कैसे सहायता दे सकते हैं? वे हमारे स्वातन्त्र्य संघर्षमें हमें किस तरह मदद पहुँचा सकते हैं? वे यह भी पूछते हैं कि भारत दुनियाको क्या-कुछ सिखा सकता है? क्या संघर्षरत लोगोंके लिए भारतका कोई सन्देश है? और अगर है तो वह विश्व-शान्तिकी स्थापनामें क्या योग दे सकता है?

पहले प्रश्नका उत्तर देना बहुत आसान है। अगर ईश्वर भी उन्हींकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं, तब फिर मनुष्य जिनकी शक्ति और सामर्थ्यकी इतनी मर्यादाएँ हैं, एक-दूसरेकी सहायता तबतक कैसे कर सकते हैं जबतक कि वे अपनी सहायता आप ही करनेको तैयार नहीं हैं? लेकिन, आखिरकार दुनियामें सही लोकमत तैयार करनेका कुछ महत्त्व तो है ही और इसमें सन्देह नहीं कि उस लोकमतका प्रभाव दिन-दिन बढ़ता जा रहा है। श्री पेजकी पुस्तिकासे मैं किसी हदतक सारांश-रूपमें जो परिच्छेद 'यंग इंडिया' में उद्धृत कर रहा हूँ,[१] उनसे स्पष्ट हो जाता है कि गलत जानकारी दे-देकर लोगोंको किस तरह गुमराह किया गया। उनकी सरकारें युद्धके दौरान उन्हें सरासर झूठी बातें बताती रहीं। इसलिए आश्रम देखनेके लिए आनेवाले हरएक यूरोपीय भाईसे मैंने कहा है कि वे हमारे आन्दोलनका

  1. देखिए खण्ड २९, पृष्ठ २५६-५७।