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३५१. कैसा लगता है?

एक अंग्रेजने न्यूयार्कमें ४८ घंटे रहनेके बाद अपनी भावनाएँ अपने लन्दनवासी कुटुम्बियों को इस तरह लिखकर भेजी हैं:

हाँ, अब देखता हूँ, यह सब बिलकुल सच है——गगन-चुम्बी अट्टालिकाएँ, बर्फ डालकर ठंडा किया हुआ पानी, २५वीं मंजिलतक सीधा ले जानेवाली लिफ्ट, जमीनके भीतर बने हुए रास्ते, नीग्रो लोग; इससे पहले मुझे इन सब बातोंपर कभी विश्वास ही नहीं होता था। किन्तु मैं अभीतक इतना ही जान पाया हूँ। मुझे यहाँ ४८ घंटे हो गये; इससे पहले मेरे जीवनमें ४८ घंटे इस तरह कभी नहीं बीते——मैं इसे अब बहुत अधिक नहीं सह सकता। मुझे बहुत घुमाया गया है, मुझपर बहुत फब्तियाँ कसी गई हैं, मुझे दिनमें, रातमें बहुत बार भोज दिये गये हैं, मुझे रंगशालाओंके प्रदर्शन दिखाये गये हैं; मैं इतना थक गया हूँ कि आँख खुली होनेपर भी कुछ देख नहीं सकता। यह सब अविश्वनीय और अकल्पनीय है। मेरे हर एक क्षणका कार्यक्रम निश्चित है। मैं जहाँ भी होता हूँ मुझसे टेलीफोनसे पूछा जाता है कि क्या मैं अपना अगला कार्यक्रम पूरा करने जा रहा हूँ। मैं एक बहाना बनाकर अभी-अभी बच निकला हूँ। घंटे-सवा-घंटेमें भोजनके लिए बाहर जानेवाला हूँ। मुझसे तो बस पोस्टकार्डोकी ही आशा रखिए। बाहर जमानेवाली सर्दी पड़ रही हैं और भीतर उबालनेवाली गर्मी है।...

अगर मैं कहूँ कि जब मैं पहली बार लन्दन पहुँचा तो मुझे वैसी ही बेचैनी महसूस हुई थी जैसी कि उपर्युक्त पत्रके लेखकको न्यूयार्क पहुँचनेपर हुई तो मुझे आशा है कि अंग्रेज लोग मेरे प्रति सहानुभूतिका अनुभव करेंगे और मैं जानता हूँ कि जब कोई ग्रामीण बम्बई जाता है तब अपने-आपको वहाँके शोर-गुल और हलचलके बीच पाकर वह भी उसी तरह भोचक्का और हक्का-बक्का रह जाता है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १५-४-१९२६