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पण्डित नेहरू और खादी

जब उसपर विरोधी लोग क्षुब्ध होने लगें तब कहा जा सकता है कि उसका मनोवांछित प्रभाव हो रहा है। अगर 'टाइम्स ऑफ इंडिया' किसी भी तरह ब्रिटिश जनमतका प्रतिनिधित्व करता हो तो स्पष्ट है कि खादीका मनोवांछित प्रभाव हो रहा है।

इस लेखके लेखकने पाठकों को यह विश्वास दिलाया है कि "भारतके दूसरे हिस्सों-की तरह ही इलाहाबादकी जनता भी कांग्रेसके इस कफनको पसन्द नहीं करती।" हाँ, लेखकने खादीको कांग्रेसका कफन ही कहा है। लेकिन, अगर ऐसा है तो समझमें नहीं आता कि खादीपर यह रोष क्यों प्रकट किया जा रहा है। लेकिन, अब यह साबित करना तो कांग्रेसी नेताओंका ही काम है कि खादी कांग्रेसका "कफन" नहीं है, बल्कि यह वह चीज है, जो कांग्रेस और जन-साधारणके बीच अटूट सम्बन्ध कायम करती है, और इस प्रकार कांग्रेसकी ऐसी प्रतिनिधि संस्था बनाती है, जैसी वह पहले कभी नहीं बन पाई थी।

लेकिन, यूरोपीयोंके साथ न्याय करनेके लिए मैं यह बता दूँ कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया' के लेखकने खादीके प्रति जो जहर उगला है, वह आम यूरोपीय जनमतका द्योतक नहीं है। मैं भारतमें रहनेवाले ऐसे बहुत-से यूरोपीयोंको जानता हूँ जो खादीके सन्देशमें विश्वास रखते हैं और कुछ ऐसोंको भी जानता हूँ जो खुद खादीका इस्तेमाल करते हैं। खादीका सन्देश यूरोप भी पहुँच गया है। दूर देश पोलैंडसे एक प्रोफेसरने खादीके बारेमें निम्नलिखित पत्र भेजा है:

क्या आप ऐसा नहीं समझते कि अगर भारतीय वस्त्रको भारतके यूरोपवासी हमदर्दोके हाथों बेचनेकी कोशिश की जाये तो अच्छा रहेगा? अगर आप मुझे अपने यहाँके कुछ कपड़े भेजें और उनपर ब्रिटिश मुद्रामें उनके दाम लिख दें तथा बिक्रीके पैसे भेजनेके लिए अंग्रेजीमें कोई एक पता लिख भेजें तो मैं इस चीज को छोटे पैमानेपर आजमा कर देख सकता हूँ। मेरा खयाल है कि अगर बिक्रीसे ज्यादा पैसे न मिले तो भी प्रचारकी दृष्टिसे यह काम बहुत लाभदायक साबित होगा और मुझे आशा है कि कमसे-कम पोलैंडमें तो आपके कार्यके प्रति अपनी सहानुभूति प्रकट करनेके लिए बहुत-से लोग भारतीय वस्त्र पहननेमें गर्व और सुखका अनुभव करेंगे...भारतकी मुक्तिके लिए सबकी सहानुभूति प्राप्त करनेका यह शायद सबसे कारगर तरीका है। खुद मेरे लिए कातनेका काम शुरू करना तो आसान नहीं है, लेकिन में घर-घर जाकर लोगोंको भारतीय वस्त्र——चाहे वह हमारे देशमें तैयार किये गये वस्त्रसे महँगा ही क्यों न हो——खरीदनेके लिए प्रेरित करनेका काम कर सकता हूँ।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १५-४-१९२६

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