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३४३. पत्र: लाभशंकर मेहताको

साबरमती आश्रम
बुधवार, १४ अप्रैल, १९२६

भाईश्री लाभशंकर,

१. आपने जो अंग्रेजी वाक्य उद्धृत किया है वह सामान्यतः रोगोंपर घटित होता है। ऐसे वाक्य ठीक कहाँ घटित होते हैं, यह बात तो प्रायः अनुभवसे ही मालूम हो सकती है।

२. पसीनेसे साहूकार होनेकी बात मैंने न तो कहीं देखी है और न सुनी है। लेकिन ऐसी कहावत अवश्य है कि लोगोंको अपनी आजीविका पसीनेसे प्राप्त करनी चाहिए।

३. 'हिन्द स्वराज्य' में बताये गये विचारोंपर मैं सम्पूर्ण रूपसे अमल नहीं कर सकता, अतः यह कहना कि ये विचार सही हैं अनुचित है——यह बात मुझे तो ठीक नहीं लगती। आपने जो कहावत उद्धृत की है, वह मुझपर तो लागू हो ही नहीं सकती। क्योंकि मैं अपने-आपको कदापि क्षमा नहीं करता; मैं तो अपना अपराध पूरी तरह स्वीकार कर लेता हूँ।

४. व्रत लेना और निश्चय करना, इन दोनोंमें जहाँ भेद माना जाये वहाँ व्रत लेनेकी ही कीमत है। जो निश्चय छोड़ा जा सके वह निश्चय नहीं कहा जा सकता; उसकी कोई कीमत नहीं हो सकती।

५. आपका पाँचवाँ प्रश्न मेरी समझमें नहीं आया। आपने जो लेटिन कहावत उद्धत की है, क्या उसमें सचमुच कोई सिद्धान्त है? उसका क्या अर्थ होगा?

६. आप जिस सम्बन्धका वर्णन करते हैं, ऐसे सम्बन्धको मैं स्तुत्य नहीं मानता।

७. खगोल विज्ञानका अध्ययन मैं आवश्यक मानता हूँ।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १०८८३) की फोटो-नकलसे।