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३३९. पत्र: भगवानदास ब्रह्मचारीको

साबरमती आश्रम
मंगलवार, १३ अप्रैल, १९२६

भाई भगवानदास ब्रह्मचारी,

तुम्हारा पत्र मिला। संस्कृतके बारेमें [ तुम्हारी बात ] समझ गया। इसमें तो मुझे कोई बात कहनेकी सूझती नहीं। "वेजीटेरियन" शब्द अपूर्ण है क्योंकि विलायतके 'वेजीटेरियन' लोग सामान्यतः दूध और अण्डा लेते हैं, मछली नहीं लेते। इसलिए इन लोगोंने एक नवीन शब्द बनाया भी है: वे इसे "वी॰ ई॰ एम॰ डाइट" कहते हैं; यानी 'वेजीटेबल्स, एग्ज और मिल्क'। सामान्य वेजीटेरियन मछली नहीं खाते, प्याज खाते हैं। लहसुनका जान-बूझकर त्याग नहीं करते। "सात्विक आहार" शब्दका प्रयोग नहीं चल सकता क्योंकि मिर्च खानेवालोंको सात्विक नहीं कहा जा सकता और अनेक मांसाहारी मांसको सात्विक कहकर खाते हैं। मैंने "अन्नाहारी" शब्द पसन्द किया है, अपने मनमें 'अन्न' शब्दका एक विशेष अर्थ मानकर। 'अन्न' शब्दका मेरा यह अर्थ इस प्रकार है——मांसादिको छोड़कर हम जो भी खाते हैं वह सब 'अन्न' है। यह भी अपूर्ण व्याख्या तो है ही। लेकिन आजतक मुझे जितने शब्द मिले हैं उन सबकी अपेक्षा "अन्नाहारी" शब्द मुझे ज्यादा ठीक लगा है।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १०८८५ ए) की फोटो-नकल से।

३४०. पत्र: छगनलाल जोशीको

साबरमती आश्रम
मंगलवार, १३ अप्रैल, १९२६

भाईश्री छगनलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हें बुखार आया है, यह खबर मुझे भाई भणसालीने दी थी। सावधानी रखना। बुखार छुट्टियोंसे पहले और छुट्टियोंके दौरान नहीं आया, यह बात भी मैंने देखी। पैसे सम्बन्धी तुम्हारी आवश्यकता बढ़ जायेगी, यह तो मैंने पहले ही सोच लिया था। इस बारेमें यदि उतावली न हो तो जब तुम आओगे तब हम बात करेंगे। इस बीच मैं किशोरलाल आदिके साथ तो बात करूँगा ही। यदि जल्दी हो तो मुझे लिखनेमें तनिक भी संकोच न करना।

मढडावाले शिवजीभाईके सम्बन्धमें अभी मुझे शान्ति रखनी होगी। मुझे क्रोधभरे पत्र प्राप्त होते ही रहते हैं, जिनसे मैं समझ सकता हूँ कि वहाँ क्या हो रहा होगा। मेरी शान्तिका क्या अनुचित लाभ उठाया जा सकता है, जो व्यक्ति अनुचित