पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/३३२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

३३४. पत्र: मोतीबहन चौकसीको[१]

आश्रम
रविवार, चैत्र बदी १४ [११ अप्रैल, १९२६]

चि॰ मोती,

पत्र मिला लेकिन इस बार जरा देरसे मिला। इस बारकी लिखावट पिछली बार जैसी अच्छी नहीं कही जा सकती।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १२१२४) की फोटो-नकलसे।

३३५. पत्र: मोतीबहन चौकसीको

रविवार, ११ अप्रैल, १९२६

चि॰ मोती,

तुम्हारा पत्र आया तो सहीं। तुम्हारी वृत्तिको मैं समझ गया था और मैंने अपनी आशंका लक्ष्मीदासको बताई भी थी। संस्कृतमें एक श्लोक है उसका अर्थ यह है: सम्भावित व्यक्तिको अपकीर्तिसे मरण प्रिय लगता है।[२]सम्भावित अर्थात् जिसे स्वमान प्रिय है। मोहको जीतना हमारा काम है। जिस मुँहने पानका स्वाद लिया है वह कोयला कैसे खा सकता है। तुम्हें याद रखना चाहिए कि तुम्हारे पतनका दूसरोंपर बहुत असर होगा। इस बातका विचार करना कि इससे बड़ोंको दुःख होगा और समझ लेना कि इससे तुममें आत्मसम्मान-जैसी कोई वस्तु नहीं रह जायेगी। आभूषणोंके शौकके पीछे विषय-भोगकी वासना निहित है, ऐसा मैं मानता हूँ। इस बातको तुम भले ही अभी न जानो लेकिन विषय-वासना रूपी साँप अभी भीतर छिपा हुआ है ही। ऐसा न हो तो आभूषणोंका शौक ही न हो। ऐसे मोहमें न पड़नेकी खातिर ही मनुष्य विद्याध्ययन और अन्यान्य उद्यम करता है। तुम्हें अन्त्यजोंकी सेवा नहीं करनी है? कंगालोंके पैर नहीं धोने हैं? जवाहरात पहनकर क्या ये कार्य तुम कर सकती हो? मेरी तुम्हें एक ही सलाह है। तुम मोहको मैल समझकर निकाल डालना। मैंने तुम्हारा पत्र किसी औरको नहीं पढ़ाया है। लक्ष्मीदासको भी पढ़ानेका विचार नहीं है। उसे मैंने फाड़ डाला है। तुम्हारे शुभ निश्चयकी राह देखूँगा;

  1. पत्रके अन्तमें गांधीजीकी सहीको जगह ये शब्द हैं: 'बापूजीकी ओरसे मणिने लिखा।'
  2. भगवद्गीता,२-३४।