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३२६. पत्र: रिचर्ड बी॰ ग्रेगको

साबरमती आश्रम
११ अप्रैल, १९२६

प्रिय गोविन्द,

यह भी खूब मजेदार रहा कि जैसे ही यन्त्रों सम्बन्धी तुम्हारे लेखपर बोलकर टिप्पणियाँ[१] लिखवानेका काम मैंने पूरा किया कि तुम्हारा पत्र आ गया। जर्मन पुस्तककी फिक्र न करो, चाहो तो उसे लौटा दो। अगर जरूरत हुई तो मैं किसी औरसे उसका अनुवाद करवा लूँगा। तुमने जिस कामका जिक्र किया है वह इतनी कठिनाइयोंके बीच, जिनसे तुम घिरे हो——उन पत्रोंका अनुवाद करनेके कामसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है।

यह जानकर प्रसन्नता हुई कि तुम बागबानी कर रहे हो और अपना खाना खुद पकाते हो। समय मिले तो वहाँकी पाठशालाके बारेमें लिखना। कितने विद्यार्थी कक्षाओंमें उपस्थित रहते हैं, उनमें कैसी क्षमता है, कौनसे विषय पढ़ाये जाते हैं, इन सबकी जानकारी देना। यह भी लिखना कि उनमें कौनसी ऐसी विशेषताएँ हैं जिन्हें हम भी अपना सकते हैं।

मैं इस माहकी २२ तारीखको मसूरीके लिए रवाना होऊँगा। मीरा तो बहुत अच्छा काम कर रही है। क्या तुमको मालूम है कि 'सत्याग्रह सप्ताह' के दौरान पाँच चरखे दिन-रात चल रहे हैं? यह मनको झकझोर देनेवाला दृश्य है। मैं समझता हूँ, दैनिक उत्पादन कमसे-कम पाँच गुना बढ़ गया है। ठीक आँकड़े अगले हफ्ते मिलेंगे। इस सप्ताह कान्तिने सूतके ४४४४ फेरे (लगभग ५९२५ गज) काते। इसका मतलब यह हुआ कि लड़केने लगभग १४ घंटेतक काम किया।

तुम्हारा,

श्री रिचर्ड बी॰ ग्रेग

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४४५) की फोटो-नकलसे।

  1. देखिए "टिप्पणियाँ", १५-४-१९२६ का उप-शीर्षक "मशीनोंसे मिलनेवाले सबक"।
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