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गलतफहमी

प्रसन्नताको छोड़कर अन्य कोई भाव नहीं है। में अपनी इस यात्राको निष्फल मानता ही नहीं हूँ। अन्य स्थानोंकी भाँति मैंने कच्छमें भी त्यागी सेवक देखे। उनकी सेवाके स्थानोंको देखना भी मेरे लिए आनन्दकी बात थी। जितना मैं सोचता था उतना चन्दा इकट्ठा नहीं हुआ, यह कोई शिकायतका कारण नहीं हो सकता। कच्छी भाइयोंसे मुझे अपने कार्योंमें उदार सहायता मिली है। हमेशा मनुष्य जितना सोचता है यदि उतना न हो तो इसमें निराश होनेकी क्या बात है? मुझे जो निराशा हुई वह इतनी ही है कि अभी हिन्दू लोग अस्पृश्यताके पापको पुण्य मानते हैं। लोगोंके कठोर हृदयोंको कोमल बनानेका काम स्वागत-मण्डलका न था; यह काम तो मेरा था। इस कामके लिए ही कार्यकर्त्ता मुझे अपने-अपने स्थानोंपर ले जाते हैं। यदि लोगोंके हृदय नहीं पिघले हैं तो उसकी शिकायत मुझे अपने आपसे ही है। इसलिए इस निराशाका कारण तो मैं खुद ही सिद्ध होता हूँ। लेकिन में इतना तो भोला नहीं हूँ कि खुद अपनेसे ही शिकायत करूँ? मेरी शिकायत तो ईश्वरसे है। उसने मुझे ऐसा अशक्त क्यों बनाया है, उसने मेरी वाणीमें इतनी शक्ति क्यों नहीं दी कि उससे लोगोंके हृदय द्रवित हो उठते। हिन्दू अस्पृश्यताको न छोड़ें, हिन्दू मुसलमान परस्पर लड़ें, सारे भारतीय खादी न पहनें तो उसके लिए मैं किसको दोष दूँ? हिन्दू-धर्ममें इसके लिए यही एक उपाय है।

देवोंपर जब भी संकट आये उन्होंने अन्तर्यामीका

स्मरण किया,

और पृथ्वीको धारण करनेवाले नरसीके नाथने उनके

संकटको दूर किया।

विश्वामित्रने स्वयं ब्रह्मर्षि बननेके लिए तपश्चर्या की, पार्वतीने शिव-समान पति पानेके लिए तपस्या की। तात्पर्य यह कि जो लोग देशहित अथवा धर्महितको साधना चाहते हैं उन्हें तपश्चर्या करके ही सिद्धि प्राप्त करनी होगी, लोगोंके दोष बताकर नहीं। कच्छकी यात्राके प्रति मेरे मनमें कोई निराशा नहीं है, इतना ही नहीं, अपितु कच्छ छोड़ते समय मैंने जो वचन दिया है उसके अनुसार यदि कच्छके स्वयंसेवक अपना कार्य करते जायेंगे और वहाँ मुझे फिर बुलाना चाहेंगे और यदि मुझे अवकाश होगा तो मैं वहाँ फिर जरूर जाऊँगा और ऐसे जो भी इलाके पिछली बार रह गये जहाँ पहुँचना कठिन था, वहाँ जाऊँगा तथा जहाँ-जहाँ गया था वहाँके भाई-बहनोंसे उनके कामका हिसाब मागूँगा।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ११-४-१९२६