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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  माटी' कहते हैं। 'झाड़े जाना' प्रयोग असभ्यतापूर्ण लगता है; इसलिए उसके बजाय 'जंगल जाना' कहना अधिक उपयुक्त लगता है। अब तो इसकी जगह सभ्य भाषामें शौचका प्रयोग होने लगा है। इसी दृष्टिसे मैंने 'निरामिषाहार' शब्दका उपयोग किया था। एक भाईने इसे नापसन्द किया और 'वनस्पत्याहार' प्रयोग सुझाया है। किन्तु यह 'निरामिषाहार' से सरल नहीं जान पड़ता। इस कारण अन्य शब्दका विचार करनेपर 'अन्नाहार' ठीक लगता है। 'अन्नाहार' में दूधका समावेश नहीं होता। ठीकसे देखें तो उसमें फलाहार भी नहीं आता। किन्तु दूसरी दृष्टिसे देखें तो खाद्य-पदार्थोंमें दूध और फल आ जाते हैं। अन्तमें यदि हम किसी शब्दका प्रयोग किसी खास अर्थमें करें और उस अर्थको प्रकाशित कर दें एवं साथ ही उस शब्दमें से वह अर्थ कुछ खींचतान कर भी ध्वनित होता हो तो हमें उस शब्दका प्रयोग उस अर्थमें करनेका अधिकार मिल जाता है। इस अधिकारसे ही हम भविष्यमें 'निरामिषाहार' के बजाय और उसमें निहित अर्थमें ही 'नवजीवन' में 'अन्नाहार' शब्दका प्रयोग करेंगे।

[ गुजरातीसे ]
नवजीवन, ११-४-१९२६

३२४. गलतफहमी

मैं देखता हूँ कि मेरी कच्छकी यात्राके[१] बारेमें अभी भी लोगोंमें गलतफहमी है और भाई मानसिंह कचराभाई तथा भाई मणिलाल कोठारीको दोष दिया जा रहा है। इसलिए मैं फिरसे यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि कच्छकी यात्राका मुझे कोई पश्चात्ताप नहीं है; बल्कि इसे मैं अपने जीवनका एक मूल्यवान् अनुभव समझता हूँ। स्वागत-मण्डलने तो अपनी कोशिशमें कोई भी बात उठा नहीं रखी और इसलिए उसे लेशमात्र भी दोष नहीं दिया जाना चाहिए। जिस प्रेमका अनुभव और जिस सुविधाका उपभोग मैंने अन्य स्थानोंपर किया है उसी सुविधा और प्रेमका अनुभव कच्छमें भी किया। अनेक दिक्कतें उठाकर भी स्वागत-मण्डलने मेरे आरामके लिए मुझे हर सुविधा देनेका प्रयत्न किया। मुझे जितना आराम दिया जा सकता था उसे देनेमें उन्होंने कोई कोर-कसर नहीं रखी। मुझे मूल निमन्त्रण देनेवाले व्यक्ति भाई मानसिंह नहीं थे; और मैं जानता हूँ कि भाई मणिलालको भी इस मामलेमें बादमें शामिल होना पड़ा था। मैं कच्छ गया सो केवल अपनी इच्छासे ही। मुझे वहाँ जो दुःख हुआ वह तो केवल आध्यात्मिक था। लोगोंमें वहमोंकी जड़ें मजबूत हों तो इसमें स्वागत-मण्डलका क्या दोष? कितने ही गाँवोंमें मैंने दंभ और ढोंगके दर्शन किये, वह भी मेरे लिए कोई नया अनुभव न था। हिन्दू-धर्ममें मैं जहाँ-जहाँ धर्मान्धता देखता हूँ वहाँसे भाग खड़ा होना मेरे स्वभावके विपरीत है। धर्मान्धको भी प्रेमपूर्वक समझाना मैं अपना धर्म समझता हूँ। इसलिए अपने कच्छके प्रवासके लिए आज मेरे मनमें

  1. देखिए खण्ड २८, पृष्ठ ४२८-३३ और ४८६-८९।