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३१५. पत्र: हकीम अजमलखाँको

साबरमती आश्रम
१० अप्रैल, १९२६



प्रिय हकीमजी साहब,

आपका पत्र मिला था। उर्दूमें लिखेनेका आनन्द प्राप्त करनेके मोहमें पड़कर इसका जवाब देनेमें मुझे देर नहीं करनी चाहिए। आपका पत्र पढ़कर दुःख होता है। आप हताश हैं। लेकिन आपके लिए इसकी गुंजाइश कहाँ है? मैं और आप दोनों यही चाहते हैं कि हिन्दू और मुसलमान अपना यह पागलपन छोड़ दें और मित्रोंकी तरह मिल-जुलकर शान्तिपूर्वक रहें। हमें स्वराज्य स्थापनाका समारोह भी देखना ही है।

आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि मसूरीमें मैं आपसे जब-तब मिलता रहूँगा। क्या आप मुझसे पहले ही वहाँ पहुँचकर थोड़ा आराम नहीं करेंगे? क्या ही अच्छा हो, अगर मैं आपसे यह वचन ले सकूँ कि आप अभी दो महीने मसूरीसे नहीं हिलेंगे——रंगपुर जानेके लिए भी नहीं।

हृदयसे आपका

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४४०) को फोटो-नकलसे।

३१६. पत्र: सतीशचन्द्र दासगुप्तको

साबरमती आश्रम
१० अप्रैल, १९२६

प्रिय सतीश बाबू,

श्री चटर्जीने 'वेलफेयर' की एक कतरनके साथ एक पत्र भेजा है। कृपया आप बंगालके अखबारों द्वारा की गई आलोचनाका उत्तर अवश्य दीजिए और उसकी एक प्रति मेरे पास भेज दीजिए ताकि मैं 'यंग इंडिया' में उसका उपयोग कर सकूँ। अपने उत्तरको प्रति भेजते समय साथमें अखबारोंकी कतरनें भी वापस भेज दीजिए।

आपका,

संलग्न प्रति १ (वापसीके लिए)


श्रीयुत सतीशचन्द्र दासगुप्त


कलकत्ता

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४४१) की माइक्रोफिल्मसे।