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पत्र: वी॰ एन॰ एस॰ चारीको

अलावा और कुछ नहीं सोच सकता और खादीके बिना यह काम असम्भव है। इसलिए मेरे पास तो सभी बुराइयोंका, जिनमें लोगोंको जेलोंमें बन्द करनेका यह घृणित कार्य भी शामिल है, एक ही इलाज है और वह है चरखा। लेकिन मैं लोगोंको समझाऊँ तो कैसे समझाऊँ कि यही सर्वोपरि उपचार है। फिर भी, इसमें मेरा विश्वास तो अखण्ड है। यह दिन-दिन बढ़ता ही जाता है। इसलिए राष्ट्रीय सप्ताहमें आश्रममें कुछ चरखे दिन-रात चलते रहते हैं। यह काम हम इस अन्ध आस्थाके साथ कर रहे हैं कि इसके माध्यमसे किसी दिन एक ऐसी शक्ति उत्पन्न होगी, जो हमें अपनी चिरपोषित आकांक्षाको मूर्त करनेकी सामर्थ्य प्रदान करेगी।

मैं जानता हूँ कि चरखेका एक विकल्प भी है और वह है गुंडागर्दी। लेकिन, मैं तो इस कामके लिए बेकार हूँ और इससे भी बड़ी बात यह है कि इसमें मेरा विश्वास नहीं है और एक व्यावहारिक व्यक्तिके नाते मैं जानता हूँ कि सरकारकी गुंडागर्दी के मुकाबले हमारी हुल्लड़बाजीकी कोई बिसात नहीं है। इसलिए मैंने सभी-कुछ छोड़कर अपना सारा दाँव चरखेपर लगा दिया है। जो लोग राष्ट्रके चतुर्दिक कष्टकी इस अनुभूतिसे व्यथित हैं, उन सबको मैं इस प्रयत्नमें हाथ बँटानेके लिए आमन्त्रित करता हूँ। सच मानिए, इसके लिए हम जितने भी कार्य-कौशल, अनुशासन और संगठन शक्तिका परिचय दे सकते हैं, सब दरकार है।

आशा है, 'फॉरवर्ड' और मेमोरियल अस्पतालका काम ठीक चल रहा होगा।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत शरत् बोस
कलकत्ता

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४३७) की माइक्रोफिल्मसे।

३१३. पत्र: वी॰ एन॰ एस॰ चारीको

साबरमती आश्रम
९ अप्रैल, १९२६

प्रिय भाई,

आपका पत्र मिला। मैंने भी छिपकलीको तिलचट्टोंपर और तिलचट्टोंको अपनेसे क्षुद्रतर प्राणियोंपर लपकते देखा है, लेकिन मेरे मनमें कभी भी ऐसी बात नहीं आई कि यह जो बड़े प्राणियोंके छोटे प्राणियोंपर जीनेका नियम है, उसमें व्यवधान डालें। इस आश्चर्यजनक रहस्यकी तहतक मैं पहुँच पाया हूँ, ऐसा मेरा दावा नहीं है। लेकिन इन्हीं व्यापारोंको देखकर मैंने यह भी समझा है कि पशु-जगतका नियम मानव जगतका नियम नहीं बन सकता; मनुष्यको कठिन प्रयत्नके द्वारा अपने भीतरके पशुपर विजय प्राप्त करके अपने मनुष्यत्वको अक्षुण्ण रखना है, और उसके चारों ओर