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शंका-समाधान

बेहिचक कही जा सकती है कि तत्सम्बन्धी अर्थात् रोजगार देने और गरीबी दूर करनेके उद्देश्यमें अबतक कोई भी दूसरा उद्योग उतना कारगर साबित नहीं हुआ है, जितना कि चरखा उद्योग।

बाबू भगवानदासने लगान और राजस्व-सम्बन्धी कानूनोंके प्रतिकूल प्रभावका उल्लेख किया है। इस तरह उन्होंने उस एकमात्र राष्ट्रीय उद्योगको जो आजसे एक सदी पूर्व भारतीय किसानोंका शक्ति-स्तम्भ था, पुनः प्रतिष्ठित करनेके मार्गकी कठिनाई बताई है, लेकिन वे यह नहीं साबित कर पाये हैं कि उसे पुनः प्रतिष्ठित करना असम्भव है। लगान और राजस्व-सम्बन्धी कानून अपरिवर्तनीय नहीं हैं। जिस हदतक वे कताई उद्योगके मार्गमें बाधक हैं, उस हदतक उन्हें बदलना ही पड़ेगा। इसपर कहा जा सकता है कि "स्वराज्यके बिना तो उन्हें बदला नहीं जा सकता"। इसका उत्तर यह है कि इन कानूनोंके बावजूद कताई-कार्यका संगठन किये बिना स्वराज्य नहीं मिल सकता। कारण, स्वराज्य प्राप्तिके लिए संघर्ष करनेका मतलब ही कठिनाइयोंसे, चाहे वे जितनी भी बड़ी हों, संघर्ष करना है। हिंसा इस संघर्षका जाना-माना किन्तु बर्बर तरीका है। कताई-कार्यका संगठन करना स्वराज्यके लिए संघर्ष करनेका नैतिक तरीका है। इस कार्यका संगठन करना सर्व-साधारणको संगठित करनेका सबसे आसान और कम खर्च तरीका है और अगर रुईका निर्यात हजारों मील दूर किया जा सकता है और वहाँसे कतकर वह सूतके रूपमें बिक्रीके लिए पुनः उन्हीं निर्यातकोंके यहाँ आ सकती है तो फिर उसे भारतके अन्दर ही उत्पादनके स्थानसे कुछ मील दूर जहाँ उसकी जरूरत हो, वहाँ ले जानेमें निश्चय ही कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। चावल पैदा न करनेवाले प्रान्तको चावल पैदा करनेवाले प्रान्तसे चावल मँगानेमें तो कोई कठिनाई नहीं होती। फिर रुई एक स्थानसे दूसरे स्थानको ले जानेमें कोई कठिनाई क्यों होनी चाहिए? यह काम आज भी किया जा रहा है। बिहारको वर्धा या कानपुरसे रुई मँगवानी पड़ती है।

लेकिन फिर बाबू भगवानदास कहते हैं कि "देशमें जो दूसरे उद्योग विकसित हुए हैं उनपर पड़नेवाले प्रभावको देखते हुए" ऐसा करना अवांछनीय हो सकता है। ऐसे कौन-से दूसरे उद्योग हैं? और अगर उनपर प्रतिकूल प्रभाव भी पड़ता है तो क्या इसी कारणसे एक ऐसे उद्योगको बढ़ानेका प्रयत्न नहीं करना चाहिए जो राष्ट्रीय जीवनके लिए फेफड़ेकी तरह जरूरी है? क्या हमें इसी वजहसे पूर्ण मद्यनिषेधके लिए काम करनेसे जी चुराना चाहिए कि जमे-जमाये शराबके कारखानोंका उससे नुकसान होगा? या कि किसी सुधारकको लोगोंसे अफीम खानेकी आदत छोड़नेको कहनेमें इस बातकी बाधा माननी चाहिए कि उससे अफीम-पैदा करनेवालोंका नुकसान होगा? बाबू भगवानदासने चम्पारनके उस किसानका उदाहरण दिया है, जो अपने लिए जरूरी अन्न भी अपने पास नहीं रख पाया था। ऐसा उसने इस कारण किया कि उसके पास अपनी जरूरत पूरी करनेके लिए काफी साधन नहीं थे। अगर वह कातता होता या करका बोझ हलका होता तो वह अपनी जरूरतके लायक काफी अन्न अपने पास रख सकता था। नील पैदा करनेकी बाध्यता समाप्त हो जानेसे उसे कुछ राहत मिल गई ।