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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

  शंकाओं और प्रश्नोंके उत्तर मिलते हों कि (१) लगान और राजस्व-सम्बन्धी कानूनों को देखते हुए आवश्यक रुईको देशके भीतर और सही लोगोंके हाथोंमें रोक रखना क्या सम्भव है? (२) देशमें जो दूसरे उद्योग विकसित हुए हैं उनपर पड़नेवाले प्रभावको देखते हुए ऐसा करना कहाँतक और किस तरह वांछनीय है? और (३) क्या यह पुरअसर होगा?...मुझे केवल एक बार इस सिद्धान्तके मूल प्रतिपादक अर्थात् महात्माजीसे इस विषयमें कुछ पूछनेका अवसर मिला और उस अवसरपर भी मैं केवल इतना ही पूछ पाया कि क्या यह सम्भव है और उन्होंने बस इतना कहकर ही सन्तोष मान लिया कि "हाँ, यह सम्भव है।"...[१]

ऊपरका अंश मौलाना मुहम्मद अलीको लिखे और 'कॉमरेड' में प्रकाशित किये गये बाबू भगवानदासके एक तथ्यपूर्ण पत्रसे उद्धृत किया गया है। यह पत्र एक बहुत पहले के अंकमें ( गत १८ दिसम्बरके अंकमें ) प्रकाशित हुआ था, किन्तु खेदके साथ कहना पड़ता है कि उसे मैंने इसी सप्ताह देखा। आरम्भमें ही मैं यह बता दूँ कि मुझे बाबू भगवानदास द्वारा उल्लिखित बातचीत याद नहीं है। मेरे लिए तो राजनीतिक दुनियामें कोई भी चीज चरखेके बराबर महत्त्व नहीं रखती। मुझे ऐसे बहुत-से प्रसंग याद हैं जब मैंने अपने आर्थिक या राजनीतिक जीवनके केन्द्र-बिन्दु अर्थात् चरखेपर चर्चा करनेके लिए दूसरे मामलोंको मुल्तवी कर दिया है। जब मैं बाबू भगवानदासका अतिथि था, उस समय उनके पूछे प्रश्नका चाहे जो हश्र हुआ हो लेकिन उनके उठाये मूल प्रश्नोंके उत्तर अवश्य दिये जाने चाहिए। चरखा-कार्यक्रम सम्भव है, यह बात तो दिन-दिन अधिकाधिक उजागर होती जा रही है। जो बहुत-सी बातें देखनेमें असम्भव लगती हैं—जैसे हिन्दू-मुस्लिम एकता, आदि—उनमें एक चरखा कार्यक्रम ही सम्भव दिखाई दे रहा है। इसका प्रमाण तमिलनाड, आन्ध्र, कर्नाटक, पंजाब, बिहार, बंगाल आदिमें कताई-संस्थाओंकी बढ़ती हुई संख्या है, और अगर इन संस्थाओंकी संख्या इससे अधिक नहीं हो पाई है तो उसका कारण यह है कि कार्यकर्त्ता बहुत कम हैं। खुद इस कार्यक्रममें ऐसा कुछ नहीं है जिससे यह सम्भव न हो सके। इससे पहले लोगोंने यह काम अत्यन्त सफलतापूर्वक किया है। आज भी करोड़ों लोग चरखा चला सकते हैं, उनके पास इसके लिए पर्याप्त अवकाश है और उन्हें एक गृह-उद्योगकी आवश्यकता भी है।

यह वांछनीय है, यह बात तो इसी तथ्यसे साबित की जा सकती है कि यह धन्धा सात लाख गाँववाले इस विशाल देशके लिए सबसे अधिक उपयुक्त है।

यह तो कोई भी निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि यह कार्यक्रम कारगर होगा या नहीं। अनेक प्रान्तोंमें जो अनुभव प्राप्त हो रहे हैं, उनसे अगर ऐसा निष्कर्ष निकाला जा सकता है तो ऐसा कहनेमें कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि बहुत सम्भावना इसी बात की है कि यह कार्यक्रम कारगर साबित होगा और यह बात तो

  1. इस पत्रके कुछ अंश और वाक्य छोड़ दिये गये हैं।