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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अवगत करानेके लिए व्यतीत करना चाहो तो करना। बा को मैंने तो खबर नहीं दी, लेकिन उसे मालूम हो गया, इसलिए बा मुझसे कह रही है कि मैं तुम्हें तुरन्त बुला लूँ। राजगोपालाचारीने भी बा से यही बात कही जान पड़ती है। तुम अपना निर्णय मुझे तुरन्त बताना।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४३१) की फोटो-नकलसे।

३००. पत्र: रुस्तमजी डी॰ बाटलीवालाको

आश्रम
७ अप्रैल, १९२६

भाईश्री रुस्तमजी,

आपका पत्र मिला। उसमें दी गई हकीकतके अनुसार तो आपको जो दोष दिखाई दिये, उन्हें जाहिर करनेका आपको अधिकार था। क्लबमें बीड़ी पीना खानगी बात नहीं कही जा सकती। इसलिए आप जो कहते हैं, उसपर से तो मैं माफीका कोई कारण नहीं देखता।

मोहनदास गांधीके वन्देमातरम्

श्री रुस्तमजी डी॰ बाटलीवाला


हिल रोड


बाँदरा, बम्बई

गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९८९७) की माइक्रोफिल्मसे।

३०१. पत्र: बेचर भाणजीको

७ अप्रैल, १९२६

भाईश्री बेचर भाणजी,

आपका पत्र मिला। मुझे नहीं लगता कि इससे पहलेके आपके लिखे कुछ पत्र मेरे पास हैं। आपको उत्तर नहीं मिला, यह आश्चर्यकी बात है। अपने अन्तिम पत्रमें आपने जो प्रश्न उठाये हैं मेरी समझके अनुसार उनका उत्तर यह है।

हरिश्चन्द्र और शृगालशा सेठका आशय यह है कि धर्मकी खातिर हमें अपने प्रियसे-प्रिय जनोंका त्याग करना चाहिए। उनका नाश हो जाये तो भी धर्मका त्याग नहीं करना चाहिए। दोनों किस्से ऐतिहासिक हैं, ऐसा मानना आवश्यक नहीं है, लेकिन ऐसा होना सम्भव है। जहाँ राग-द्वेष हो वहाँ, भगवत्ता नहीं हो सकती, इस सिद्धान्तको ध्यान में रखकर ही कथाका अर्थ करना चाहिए। नीतिके चौकठेमें