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२९८. पत्र: माणेकलालको

साबरमती आश्रम
बुधवार, ७ अप्रैल, १९२६

चि॰ माणेकलाल,

राजकोटके घरमें ब्रजलालके हिस्सेके किरायेके बारेमें मैंने चिरंजीव आनन्दलाल को लिखा था। उसका जो उत्तर मिला है, उसे रख रहा हूँ।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४३०) की फोटो-नकलसे।

२९९. पत्र: देवदास गांधीको

साबरमती आश्रम
बुधवार, ७ अप्रैल, १९२६

चि॰ देवदास,

तुम्हारा पत्र मिला। ऐसी बीमारीकी खबर यदि तुमने मुझे उसके होते ही तुरन्त दे दी होती तो कितना अच्छा होता? छिपाने की कोई जरूरत न थी। मैंने यह बहुत बार अनुभव किया है कि मेरे प्रति लोगोंकी ऐसी झूठी दया वस्तुतः निर्दयता सिद्ध होती है। कमलाकी बीमारी बहुत आसानीसे दूर हो सकती है। उसके लिए उपवास-जैसी और कोई दवा नहीं है। उपवास करने, एनीमा लेने और खूब पानी पीनेसे बीमारी तुरन्त चली जायेगी और भूख वापस आयेगी। भूखा रहने या उपवास करनेसे रोगी ज्यादा कमजोर हो जाता है, इस बातको तो मैंने कभी नहीं माना। यदि छाछ भी लेनी हो तो उसमें से मक्खन बिलकुल निकाल देना चाहिए। दही तो नहीं ही दिया जा सकता। चावल व्यर्थका बोझ है। मुझे याद है कि १८९६ में मुझे जबर्दस्त पोलिया हुआ था। उस समय मणिशंकर वैद्यकी दवामें ही मेरा विश्वास था। उन्होंने मुझे कोई क्षारवाली दवा दी थी। ...[१]मुख्य बात तो खुराक बन्द करना ही थी। उन्होंने मुझे कोई दस दिनतक दूध, छाछ या भात कुछ भी नहीं लेने दिया। ये दस दिन मैंने केवल हरे फल यथा नारंगी, सन्तरा, अंगूर और गन्ना चूसकर काटे। चीनी बन्द थी। मुझे एक भी दिन शय्यावश नहीं होना पड़ा और हर समय मैं अपना काम करता रहा। इस समय मैं अपने दक्षिण आफ्रिकाके कामके लिए काफी घूम-फिर रहा था। मेरी सलाह है कि तुम्हें यहाँ आ जाना चाहिए। उपचार करके तुरंत स्वस्थ हो सकोगे। वहाँ जबतक राजगोपालाचारी रहें, तबतक रहो। एक-दो दिन प्यारेलालके साथ बातें करनेमें और प्यारेलालको कामसे

  1. साधन-सूत्र में यहाँ जगह खाली है।