पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/३०१

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



२९४. पत्र: सोमनाथ पंचालको

आश्रम
७ अप्रैल, १९२६

भाई सोमनाथ,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम उस वृद्ध व्यक्तिको जैसी हालत बताते हो, वैसे व्यक्तिकी आर्थिक मदद करना मैं अवश्य उचित समझता हूँ। जो अपंग हो, उसका पोषण करना समाजका धर्म है। जिसके हाथ-पैर चलते हैं उससे काम लिये बिना उसका पोषण करना मैं अधर्म समझता हूँ।

संयम धर्मका पालन यदि एक ही घरमें रहनेके कारण न हो सकता हो तो अलग रहना आवश्यक है। उसका पालन न होता हो, फिर भी जबरदस्ती एक ही घरमें रहना धर्म नहीं कहा जा सकता।

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १०८७२) की माइक्रोफिल्मसे।

२९५. पत्र: प्राणजीवन के॰ देसाईको

साबरमती आश्रम
बुधवार, ७ अप्रैल, १९२६

भाईश्री ५ प्राणजीवन,

जो दम्पती, जैसा कि आप लिखते हैं, उस प्रमाणमें विषयासक्त होकर व्यवहार करते हैं, वे स्त्री-पुरुषके धर्मका पालन नहीं करते। वे पशुसे भी बदतर हैं, ऐसा कहते हुए मुझे तनिक भी संकोच नहीं होता। बारह-तेरह वर्षकी बालिका स्त्री-धर्मका पालन करनेमें बिलकुल असमर्थ है, उसके साथ विषय-व्यवहार रखनेवाला व्यक्ति घोर पाप करता है। रजस्वला स्त्रीके सम्बन्धमें आप जो लिखते हैं, उस बातसे मैं तो परिचित ही न था। चार दिनोंके बाद पुरुषको उसके साथ रहना ही चाहिए, ऐसे धर्मको में स्वीकार नहीं कर सकता। जबतक स्राव जारी रहता है, तबतक मैं पतिके लिए उसका स्पर्श त्याज्य समझता। स्राव बन्द होनेके बाद दोनों को प्रजा-प्राप्तिकी इच्छा हो और वे मिलें तो मैं इसमें दोष नहीं मानता।

मो॰ क॰ गांधी

गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १२१८४) की फोटो-नकलसे।