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२९०. पत्र: खंडेरियाको

आश्रम
६ अप्रैल, १९२६

भाई खंडेरिया,

...[१]आश्रमके अथवा अन्य जो लोग यहाँ-वहाँ कहीं भी भोजन करते हों, उन्हें यदि तुम अलग पंक्तिमें बिठाकर जिमाते हो तो इसमें उन्हें दुःख नहीं मानना चाहिए। उन्हें इसमें बुरा लगता हो तो भी उन्हें अलग बिठाकर खिलानेमें मैं कोई दोष नहीं देखता। अन्त्यज चाहे जो खाते-पीते हों, लेकिन हम अन्य वर्णोंके साथ उनके खानपानका विचार किये बिना, जिस तरहका व्यवहार करते हैं उसी तरहका व्यवहार हमें अन्त्यजोंके साथ भी करना चाहिए।

अन्त्यजशाला
लखतर

गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९८९६) की माइक्रोफिल्मसे।

२९१. पत्र: जी॰ जी॰ जोगको

साबरमती आश्रम
७ अप्रैल, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। आपने जो दिलचस्प कतरन भेजी है, वह मुझे बिलकुल प्रलापपूर्ण मालूम होती है। उन दिनों ३३ शाकाहारी उपाहारगृह थे। इस समय कितने हैं, मुझे नहीं मालूम। और जहाँतक मैं जानता हूँ, लेखकने जिन व्यंजनोंका वर्णन किया है, वे ही व्यंजन लोग बड़े चावसे खाया करते थे और उससे उन्हें लाभ भी होता था। लेकिन यह सब तो मन मानेकी बात है। उन्होंने बड़े उत्साहसे जिन चटनियोंका वर्णन किया है, उनका खयाल करके ही मेरा तो मन खराब हो जाता है।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत जी॰ जी॰ जोग
मोतीमहल, कानपुर

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४३२) की माइक्रोफिल्मसे।

  1. साधन-सूत्रमें ऐसा ही है।