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२८५. पत्र: पी॰ एस॰ एस॰ राम अय्यरको

साबरमती आश्रम
६ अप्रैल, १९२६

प्रिय मित्र,

दुःख है कि आपका पत्र मैं इससे पहले नहीं देख सका। चरखा आपको तबतक सन्तोष नहीं दे सकेगा, जबतक कि दीन-दुःखियोंके साथ आपको उसका घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं दीखता और आप यह नहीं मानते कि यह उन्हें आर्थिक कष्टोंसे छुटकारा दिलानेका साधन है। क्या गरीबों के लिए मेहनत करके उन्हें सहायता देनेमें कोई सन्तोष नहीं है? एक लैटिन कहावत है, जिसका अर्थ है—श्रम ही प्रार्थना है। यहाँ श्रमसे तात्पर्य है, दूसरोंके लिए किया गया श्रम।

आप जानना चाहते हैं कि प्रार्थना किससे की जाये। प्रार्थना तो सिर्फ उस सर्वशक्तिमान से ही की जा सकती है। हम चौबीसों घंटे अपने चारों ओर मनमें आदर और भय उत्पन्न करनेवाले प्रकृतिके जो व्यापार अपनी आँखों देखते रहते हैं, अगर उससे सन्तोष न हो तो हमें अपने मनमें ऐसी आस्था जगानी चाहिए कि उस सर्व- शक्तिमानका अस्तित्व है। निश्चय ही, इस सबसे परे कोई चेतन शक्ति है और वह है ईश्वर। लेकिन अगर प्रकृतिके ये प्रत्यक्ष व्यापार हममें विश्वास उत्पन्न न कर पाते हों, तब हमें मनुष्य जातिके तमाम महान् शिक्षकोंके अनुभवोंके आधारपर अपने भीतर यह विश्वास जगाना चाहिए। वही चेतना शक्ति हमारी प्रार्थना सुनती है और उसका उत्तर देती है। जब आप चरखा चला रहे हों, उस समय उस सर्वव्यापी शक्तिका ध्यान करके देखिए और फिर मुझे लिखिए कि चरखा आपको सन्तोष दे पाया है या नहीं।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत पी॰ एस॰ एस॰ राम अय्यर


एस॰ आई॰ रेलवे एजेंसी


कोचीन

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४२४) की माइक्रोफिल्म से।