२८०. पत्र: जमनालाल बजाजको
साबरमती आश्रम
रविवार, ४ अप्रैल, १९२६
तुम्हारा पत्र मिला। २२ तारीखको मैं यहाँसे रवाना हो सकूँगा, इस आशयका तार मैंने तुम्हें भेजा है। उसके पहले निकल सकना सुविधाजनक नहीं है। और अभी तो यहाँ गर्मी के बदले ठंडक रहती है, ऐसा कहा जा सकता है। इस बार भी मेरा वजन आधा पौंड बढ़ा है। इससे अब १०४ पौंडतक हो गया है। आराम तो खूब ले रहा हूँ। हकीम साहबको लिखे हुए तुम्हारे पत्रका मसविदा में पढ़ गया हूँ। यह ठीक है। इसके साथ उसे वापस भेज रहा हूँ। मेरे साथ शायद प्यारेलाल, महादेव, सुब्वैया, प्यार अली, नूरबानु बहन और उनका नौकर होगा। प्यार अलीका इरादा तो किराया देकर अलग रहने और अपना खाना बनानेका है। अगर तुम्हें हालमें बम्बई रहने की जरूरत न हो तो तुम मेरे साथ मसूरीमें रहो, यह मुझे जरूर अच्छा लगेगा। कितने ही काम तो तुम्हारे रहनेपर हम जरूर कर लेंगे। लेकिन अगर कामके सिलसिलेमें बम्बई या कलकत्ता जाना हो तो मैं तुम्हें खास तीरसे रोकना नहीं चाहूँगा। इसलिए अन्तिम निर्णय तो अपनी सुविधा देखकर तुम्हें ही करना होगा।
गुरुकुलका काम तुमसे ठीक सध रहा है, ऐसा लगता है। राजगोपालाचारीको अपने आश्रमकी बहुत झंझट है। इसलिए उन्हें तुरन्त जाना होगा। अब्बास तैयबजी दौरे के लिए तैयार हो सकें, ऐसी सम्भावना है। मणिलाल रंगूनसे आ गए हैं। परन्तु वे तुरन्त दौरेके लिए निकल सकें, ऐसा नहीं लगता। उन्हें अब थोड़ा समय रेलवेके नौकरोंके लिए भी देना पड़ेगा। इसलिए वे अभी तुरन्त भ्रमण नहीं कर सकते। वे यहाँ से मंगलवार को रवाना होंगे।
बापूके आशीर्वाद
गुजराती पत्र ( जी॰ एन॰ २४५८) की फोटो-नकल से।