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ब्रह्मचर्यके विषयमें

प्रजोत्पत्ति स्वाभाविक क्रिया तो जरूर है, लेकिन उसकी मर्यादाएँ स्पष्ट हैं। इन मर्यादाओंका पालन नहीं किया जाता, इस कारणसे स्त्रीजाति भयभीत रहती है और सन्तान निःसत्व बनती है। इससे रोग बढ़ते हैं, पाखण्ड फैलता है और जगत ऐसा बन जाता है जैसे ईश्वर हो ही नहीं। मनुष्य जब विषय-भोगमें लिप्त हो जाता है, तब वह आत्म-विस्मृत हो जाता है। ऐसा आत्म-विस्मृत मनुष्य कुछ लिखे, उसे प्रकाशित करे और हम उससे मोहित होकर उसका अनुकरण करें तो हमारी क्या दशा होगी? परन्तु आजके पाठक-समाजमें व्यवहारमें तो ऐसा ही होता दिखाई देता है। पतंग जिस समय दीपकके आसपास नाच रहा होता है यदि वह अपने उस समयके क्षणिक सुख और आनन्दका वर्णन लिखे और हम उसे ज्ञानी समझकर उसका वर्णन पढ़ें तथा उसका अनुकरण करें तो हमारी क्या हालत हो? मैं तो अपने अनुभव और अपने साथियोंके अनुभवके आधारपर यहाँतक कहना चाहता हूँ कि पति-पत्नीके बीच भी व्यभिचारपूर्ण आकर्षण स्वाभाविक नहीं है। विवाहका अर्थ यह है कि पति-पत्नी अपने प्रेमको निर्मल और शुद्ध बनायें और ईश्वर-प्रेमका अनुभव करें। पति-पत्नीके बीच निर्विकार प्रेम होना असम्भव नहीं है। मनुष्य पशु नहीं है। वह अनेक पशु-जन्मोंके बाद मनुष्य बना है। केवल वही सीधा खड़ा रहनेके लिए पैदा हुआ है। पशुता और पुरुषार्थके बीच उतना ही भेद है, जितना जड़ और चेतनके बीच।

ब्रह्मचर्य का पालन करनेके लिए कुटुम्बका त्याग करना आवश्यक है, और नहीं भी है। जो मनुष्य अपने विकारोंको वशमें रख सकता है, उसे बाहरी त्यागकी कम आवश्यकता है। जो अपने विकारोंको रोकने में असमर्थ है वह, जिस प्रकार आदमी आगसे दूर भागता है उसी प्रकार, जहाँ भी अपने भीतर विकार पैदा होते देखे वहाँसे सो कोस दूर भाग जाये।

मैं अन्तमें ब्रह्मचर्य पालनके लिए कुछ आवश्यक साधन बता दूँ।

ब्रह्मचर्य के मार्गपर चलनेके लिए पहला कदम है, उसकी आवश्यकताका ज्ञान होना। इसके लिए ब्रह्मचर्य-सम्बन्धी पुस्तकोंका पठन और मनन आवश्यक है।

दूसरा कदम है धीरे-धीरे इन्द्रियोंपर काबू पाना। ब्रह्मचारी स्वादपर अंकुश रखे; वह जो कुछ खाये पोषणके लिए ही खाये। आँखोंसे गन्दी वस्तु न देखे। आँखोंसे सदा शुद्ध वस्तु ही देखे। किसी गन्दी वस्तुके सामने आँखें बन्द कर ले। इसीलिए सभ्य स्त्री-पुरुष चलते-फिरते इधर-उधर देखनेके बदले जमीनपर ही नजर रखें और शरीरकी तुच्छताका ही दर्शन करें। वे कानसे कोई वीभत्स बात कभी न सुनें; नाकसे विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तुएँ न सूंघें। स्वच्छ मिट्टीमें जो सुगन्ध है, वह गुलाबके इत्रमें भी नहीं है। जिसे आदत नहीं होती, वह तो इन बनावटी सुगन्धोंसे अकुला उठता है। वे अपने हाथ-पाँवका भी कभी बुरे काममें उपयोग न करें; और समय-समयपर उपवास करें।

तीसरा कदम यह है कि ब्रह्मचारी अपना सारा समय सत्कार्यमें, जगतकी सेवामें ही बिताये।