२६८. पत्र: डाह्याभाई म॰ पटेलको
आश्रम
३ अप्रैल, १९२६
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तुमने आत्म-निरीक्षण ठीक किया है। तुम चरखेके कार्यमें ही तल्लीन हो सकोगे और इससे भारी लोक-सेवा हो सकती है—ऐसी श्रद्धा रखोगे तो मुझे विश्वास है, तुम्हें सन्तोष होगा और अन्तमें उसका सुन्दर परिणाम भी तुम देखोगे। लेकिन हो सकता है, तुम अपने धीरजकी सीमा बाँध लो। जहाँ सीमा बाँधी गई हो वहाँ धीरज नहीं होता। भगवान करे, तुम अपने निश्चयमें सफल बनो।
बापूके आशीर्वाद
घोलका
गुजराती पत्र (एस॰ एन॰ १९८९३) की माइक्रोफिल्मसे।
२६९. पत्र: एक बहनको
साबरमती आश्रम
शनिवार, चैत्र बदी [५][२] [३ अप्रैल, १९२६]
तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे दुःखसे मुझे सहानुभूति है। तुम अपने पतिको लेकर यहाँ आओ अथवा अपने पतिको भेज दो तो मैं उसके साथ अवश्य बातचीत करूँगा। और शान्ति प्रदान करनेका प्रयत्न करूँगा। यहाँ वे लम्बे अरसेतक तो नहीं रह सकते। मुझे खुद थोड़े दिनोंमें मसूरी जाना है। इसलिए यदि तुम दोनों अथवा तुम्हारे पति यहाँ आना चाहें तो तुरन्त आ जाना चाहिए। श्रद्धा और धीरज न खोना। दुःखमें ही सुख मानना। ऐसा मान बैठनेका कोई कारण नहीं कि सावित्री-जैसी शक्ति तुममें आ ही नहीं सकती।
गुजराती प्रति (एस॰ एन॰ १९४१६) की माइक्रोफिल्मसे।