२६४. पत्र: मणिलाल गांधीको
३ अप्रैल, १९२६
रामदासको लिखा तुम्हारा पत्र मिला। 'फ' का भी। मुझे यह शंका तो थी ही; 'ज' ने कुछ इशारा किया था। तुम स्वतन्त्र हो, इसलिए तुम्हारे ऊपर अपनी राय जबरदस्ती तो नहीं लाद सकता। लेकिन एक मित्रके रूपमें लिखता हूँ।
तुम्हारी इच्छा धर्म-विरुद्ध है। तुम हिन्दू धर्मका पालन करो और 'फ' इस्लाम धर्मका, तो यह एक म्यानमें दो तलवारवाली बात हुई, या फिर तुम दोनोंने धर्मको छोड़ दिया। और फिर तुम्हारी सन्तान किस धर्मका पालन करेगी? किसकी छायामें पले-बढ़ेगी? 'फ' केवल तुमसे विवाह करनेके लिए अपना धर्म बदले तो वह धर्म नहीं, अधर्म है। धर्म ऐसी वस्तु नहीं जो वस्त्रकी तरह अपनी सुविधाके लिए बदला जा सके। धर्मके लिए तो मनुष्य विवाह छोड़ देता है, घर-संसार छोड़ देता है, देश छोड़ देता है, लेकिन किसीके लिए धर्म नहीं छोड़ा जा सकता। तब क्या 'फ' अपने पिताके घर मांसाहार नहीं करेगी? यदि नहीं करेगी तो यह धर्म बदलनेके समान ही है।
समाजकी दृष्टिसे भी यह विवाह अनुचित है। तुम्हारे इस विवाह सम्बन्धसे हिन्दू-मुस्लिम प्रश्नको भारी धक्का पहुँचेगा। दोनों समाजों में बेटी-व्यवहार इस प्रश्नका उपयुक्त समाधान नहीं है। तुम मेरे पुत्र हो, यह बात तुम नहीं भुला सकते, समाज भी नहीं भुला सकता।
तुम यदि यह सम्बन्ध करते हो तो तुमसे सेवा नहीं हो सकती और मुझे तो ऐसा लगता है कि तुम 'इंडियन ओपिनियन' चलानेके लिए भी अयोग्य हो जाओगे।
विवाहके बाद तुम्हारा भारतमें आकर बसना तो फिर में असम्भव ही मानता हूँ।
बासे मैं अनुमति नहीं माँग सकता, वह देगी भी नहीं। उसके लिए तो सारा जीवन एक कड़वा घूँट हो जायेगा।
इस सम्बन्धमें तुमने केवल क्षणिक सुखका ही विचार किया है। अन्तिम सुखको तुमने स्थान नहीं दिया है।
शुद्ध प्रेम तो भाई-बहनका ही होता है; इसमें तो विषय-सुख ही प्रधान है।
तुम मूर्छासे जागो, ऐसी मेरी इच्छा है। जहाँतक में समझा हूँ, रामदास और देवदास भी, स्वतन्त्र रूपसे विचार करनेपर, इसी निर्णयपर पहुँचे हैं।
बाके सामने इस सम्बन्धमें बात करनेकी मेरी हिम्मत नहीं हुई।
भगवान तुम्हें सच्ची राह दिखाये!
बापूके आशीर्वाद
सौजन्य: सुशीला बहन गांधी