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२६०. पत्र: जी॰ पी॰ नायरको

साबरमती आश्रम
३ अप्रैल, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। 'गणतन्त्र' शब्दके अर्थके सम्बन्धमें आपने मुझे पहलेसे भी ज्यादा दुविधामें डाल दिया है। मैं देखता हूँ कि इस सम्बन्ध में आपके और मेरे विचारोंमें बहुत अधिक अन्तर है। तब मैं आपको प्रोत्साहनके दो शब्द कैसे लिखकर भेज सकता हूँ?

मुझे एक क्षणके लिए भी ऐसा नहीं लगता कि असहयोग आन्दोलन अपना आकर्षण खो बैठा है, और न मैं यही मानता हूँ कि बारडोली-निर्णय एक बड़ी भूल थी। और मेरा यह विश्वास तो पहलेसे भी ज्यादा गहरा हो गया है कि जो लोग गरीबोंकी परवाह करते हैं और उन्हें समझते हैं उन लोगोंके लिए चरखे और खादीके प्रसार तथा विदेशी कपड़ेके बहिष्कारमें अपनी सारी शक्ति लगा देनेसे ज्यादा अच्छा काम और कुछ हो ही नहीं सकता।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत जी॰ पी॰ नायर


सम्पादक, 'रिपब्लिक'


माल रोड, कानपुर

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४१४) की माइक्रोफिल्मसे।

२६१. पत्र: पी॰ गोविन्दन कुट्टी मेननको

साबरमती आश्रम
३ अप्रैल, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मेरे उत्तर ये रहे:

१.मैं ईश्वरका साक्षात्कार करना चाहता हूँ---लेकिन जिस रूपमें मैं उसके साक्षात्कारकी कल्पना करता हूँ उस रूपमें नहीं बल्कि वह जैसा है, बिलकुल उसी रूपमें।

२.ब्रह्मचर्यकी मेरी जो कल्पना है, अगर सारी दुनिया उस अर्थमें ब्रह्मचारी बन जाये तो उसका रूप आजकी अपेक्षा लाख दर्जे अच्छा हो जायेगा, लेकिन मैं समझता हूँ, ऐसी कोई सम्भावना नहीं है कि सारी दुनिया एकाएक पूर्ण संयमका

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