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२४४. पत्र: कालीशंकर चक्रवर्तीको

साबरमती आश्रम
१ अप्रैल, १९२६

प्रिय मित्र,

"विधवा विवाह" के सम्बन्धमें आपका पत्र मिला। क्या आप अपने पत्र में निहित तर्क- दोषको नहीं देख पाते? जब लड़की यह जानती ही नहीं हो कि पति क्या होता है, जब उसने उस व्यक्तिको शायद देखा भी नहीं हो जो उसके जीवनसाथीकी तरह रहनेवाला हो और जब पति-पत्नी एक रातको भी साथ नहीं रहे हों, तब क्या आप उसे विवाह कहेंगे? मुझे तो ऐसे सम्बन्धको विवाहकी तरह स्वीकार करनेका हिन्दू-धर्ममें कोई आधार नहीं दिखाई देता। और फिर पुरुषोंकी पवित्रताके नामपर कच्ची उम्रकी लड़कियोंके वैधव्यको ठीक बतानेसे क्या लाभ? पुरुषोंकी पवित्रताकी बात बिलकुल ठीक है, लेकिन उसका उपयोग स्त्री-जातिके साथ किये जानेवाले अन्यायपर परदा डालनेके लिए नहीं किया जा सकता। वैधव्यकी पवित्रताकी अनुभूति तो खुद विधवाको ही होनी चाहिए। यह पवित्रता जबरन थोपी नहीं जा सकती। पश्चिमी दुनियामें प्रचलित तलाककी प्रथा और अन्य अनियमितताओंका निश्चय ही हमारी हजारों बहनोंके साथ बुनियादी न्याय करनेके सवालसे कोई सम्बन्ध नहीं है। हमारी अपनी ही हठधर्मिताके कारण, और हिन्दू-धर्मके प्रत्येक रीति-रिवाजको, वह दुनियाकी नैतिकताकी भावनाके कितना भी प्रतिकूल क्यों न हो, सही बतानेकी हमारी आदतके कारण हिन्दू-धर्मकी जड़ें खोखली हो जानेका गम्भीर खतरा है।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत कालीशकर चक्रवर्ती
ज्योति, चटगाँव

अंग्रेजी प्रति (एस॰ एन॰ १९४०८) की फोटो-नकलसे।