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पत्र: बुद्धूको

जरूरत नहीं है और उन्हें स्वावलम्बी भी बनाया जा सकता है। दिल्लीकी समिति लाला लाजपतरायको और बनारसकी समिति आचार्य ध्रुवको अपनी-अपनी प्रदर्शनियोंका उद्घाटन करनेके लिए बुला सकी, यह उन समितियोंके लिए कुछ कम सौभाग्यकी बात नहीं थी। यदि प्रदर्शनियोंका प्रबन्ध अच्छी तरह हो तो उनका बड़ा शैक्षणिक महत्त्व होता है। एक सामान्य ध्येयके लिए एकत्र होकर काम करनेके लिए सभी दलों और वर्गोंको प्रदर्शनियाँ एक निष्पक्ष मंच भी प्रस्तुत करती हैं। मैं ऐसे एक भी सार्वजनिक नेताको नहीं जानता हूँ जो सिद्धान्ततः खादीके खिलाफ हो।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १-४-१९२६

२३४. सन्देश: त्रिवेन्द्रमकी एक सभाके लिए[१]

१ अप्रैल, १९२६

त्रावणकोरके सुधारकोंने अस्पृश्यता निवारणके सम्बन्धमें अच्छा काम किया है। धार्मिक दृष्टिसे में इस प्रश्नपर जैसे-जैसे ज्यादा विचार करता जाता हूँ, वैसे-वैसे मुझे यह महसूस होता जाता है कि अस्पृश्यता हिन्दू-धर्मरूपी चन्द्रमाका एक कलंक है। इसलिए मैं आशा करता हूँ कि जबतक अस्पृश्योंको शेष हिन्दुओंके साथ समानाधिकारके आधारपर प्रत्येक मन्दिर और प्रत्येक सार्वजनिक स्कूलमें प्रवेश नहीं दिया जाता तबतक सुधारक आरामसे नहीं बैठेंगे।

[गुजरातीसे]
गुजराती, ११-४-१९२६

२३५. पत्र : बुद्धूको

साबरमती आश्रम
१ अप्रैल, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र मिला। मैं आपकी संस्थाकी सफलताकी कामना करता हूँ, तथापि मुझे लगता है कि अपना नाम संरक्षकके रूप में इस्तेमाल करने की अनुमति मुझे नहीं देनी चाहिए। जहाँ में कोई सेवा नहीं कर सकता वहाँ ऐसे सम्मानको कभी स्वीकार नहीं करता और में यह बात साफ-साफ स्वीकार करता हूँ कि मैं आपकी संस्थाकी कोई सेवा करनेमें असमर्थ हूँ, यहाँतक कि मैं वहाँ किसीको भेज भी नहीं सकता। कारण, आज जबकि स्थिति यह है कि अपनी शक्ति और सेवा देनेके इच्छुक सभी

 
  1. सभामें अस्पृश्योंके लिए मन्दिरमें प्रवेश दिलाने के कार्यक्रमपर विचार किया गया था।
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