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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खादी अपने ही प्रान्तमें बेचनेका प्रबन्ध करें तो इससे बहुत सा समय और पैसा बचेगा और खादीकी प्रगति बहुत जल्दी होगी।

बेजवाड़ा नगरपालिका और खादी

बेजवाड़ाकी नगरपालिकाकी निम्नलिखित रिपोर्ट[१] बड़ी दिलचस्पीके साथ पढ़ी जायेगी:

यह कार्य-विवरण बड़ा ही प्रशंसनीय है। नगरपालिका यदि तकली काममें लाना शुरू कर दे तो वह बड़ी आसानीसे सूतको पाँच गुना बढ़ा सकती है, और उससे शिक्षकों और विद्यार्थियोंके लिए फिर कोई बहाना भी नहीं रह जायेगा। तकली कोई जगह नहीं घेरती है और उसमें कोई खास खर्च भी नहीं होता है और कोई हिस्सा टूट जाने के कारण होनेवाली कोई तकलीफ भी नहीं उठानी पड़ती।

खादी अप्राप्य है

संयुक्त प्रान्तसे एक भाई लिखते हैं:

मैं देखता हूँ कि यहाँ वकीलोंमें खादीकी बड़ी माँग है। मैंने उनके हाथ कुछ खादी बेची भी है। उन्होंने शिकायत की कि उनके शहरमें कोई खादीभण्डार नहीं है, और मुझे बताया कि हम ५,००० रुपये इकट्ठा करके एक कम्पनी बनाना चाहते हैं।

मैं आशा करता हूँ कि वह कम्पनी बनाई जायेगी। बिहार-यात्राके दौरान भी मेरे पास ऐसी शिकायतें आई थीं। देशमें जगह-जगह खादी-भण्डार नहीं खोले गये हैं, इसका कारण यह है कि अभी खादीकी उतनी मांग नहीं है कि जगह-जगह भण्डार खोलनेकी जरूरत हो। अनुभवसे तो यह मालूम हुआ है कि जब ऐसे भण्डार खोले जाते हैं और नियमित प्रचार कार्यके अभावमें वे स्वावलम्बी नहीं बन पाते तब कुछ दिनोंके बाद उन्हें बन्द कर दिया जाता है और फलतः जितना रुपया उसमें लगा होता है वह सब डूब जाता है और खादी-आन्दोलनकी बदनामी होती है। इसलिए बेहतर तो यह है कि अखिल भारतीय चरखा संघके एजेन्ट खादी-प्रेमियोंसे सम्पर्क रखें, खादीके नमूनों और कीमतोंका विज्ञापन दें और समय-समयपर जिन जगहों में खादीकी बिक्रीकी सबसे ज्यादा सम्भावना हो, वहां फेरी लगायें। जब उन्हें किसी स्थानके बारेमें ऐसा मालूम हो जाये कि वहाँ खादीकी नियमित और काफी बड़ी माँग है तो वे वहाँक स्थानीय धनी लोगोंको खादी-भण्डार खोलनेकी सलाह दें। नियमित प्रचार करना उस भण्डारका कार्य होना चाहिए।

प्रदर्शनियाँ

यदि समय-समयपर जुदा-जुदा स्थानोंमें प्रदर्शनियाँ की जा सकें तो सम्भव है कि वे ज्यादा कारगर साबित हों। कहा जाता है कि अभी-अभी दिल्ली और काशी में जो प्रदर्शनियाँ की गई थीं, वे काफी सफल रहीं। प्रदर्शनियोंपर अधिक खर्च करनेकी

 
  1. रिपोर्टका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है।