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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जिसके अन्त में पेंशनके रूपमें शायद उन्हें बार-बार होनेवाला मलेरिया या क्षयरोग या इसी तरहका कोई और रोग हो मिले। यही उन्हें प्राप्त होनेवाला वह प्रमाणपत्र होगा जो इस बातकी साक्षी भरेगा कि उन्होंने दलदली क्षेत्रोंमें रहनेवाले उन करोड़ों अधभूखे लोगोंकी अनवरत सेवा की है, जिन्हें नई दिल्लीके निर्माणके लिए आवश्यक साधन मुहैया करने पड़ते हैं, जिन्हें उन सैनिकोंके प्रशिक्षणका खर्च उठाना पड़ता है, जो उनकी स्वतन्त्रताका अपहरण करने के लिए रखे जाते हैं और जिनकी खून-पसोनेको कमाईसे राजसो भवनों में युवकों और युवतियोंको इन करोड़ों लोगोंपर शासन करनेकी कला सिखाई जाती है।

विद्यापीठके संचालकोंने वार्षिक समारोहके अवसरपर एक खादीकी प्रदर्शनीका आयोजन किया था, जिसका उद्घाटन सतीश बाबूने किया था। पिछले सप्ताह मैंने सतीश बाबूके इस उद्घाटन-भाषणके कुछ अंश उद्धृत किये थे। इस सप्ताह में चक्रवर्ती राजगोपालाचारीके भाषणके अंश दे रहा हूँ। दोनों भाषणोंमें युवा पीढ़ीके लोगोंके सोचने और अपनाने के लिए काफी मसाला है। आचार्यों और शिक्षकोंको भले ही जीने-भरको मिले और छात्रोंको संख्या भले ही इतनी कम रह जाये कि उन्हें एक ही हाथकी अँगुलियोंपर गिना जा सके, लेकिन राष्ट्रीय संस्थाओंको कायम रखना ही है। आवश्यकता सिर्फ इस बातको है कि अध्यापक और छात्र अपने सीधे-सादे आदर्शोके प्रति ईमानदार रहें। ये आदर्श हैं: चरखेके रूप में अभिव्यक्त सत्य और हिंसाका आदर्श, अस्पृश्यताके कलंकको मिटाकर हिन्दू धर्मको शुद्ध बनानेका आदर्श और भारतके विभिन्न धर्मो और सम्प्रदायोंके माननेवाले वर्गीके बीच हार्दिक एकता स्थापित करके देशको एक सूत्र में बाँधनेका आदर्श। इसलिए राष्ट्रीय शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जिससे वह इन आवश्यकताओं और आकांक्षाओं की पूर्तिमें सहायक हो सके। अगर कोई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय छात्रों आदिको संख्या बढ़ानेके खयालसे आदर्शके साथ खिलवाड़ करता है तो उसका मतलब होगा कि उसने कुछ तात्कालिक लाभके लिए अपनी सारी परम्परा और पूँजी गँवा दी। ऐसा विश्वविद्यालय तो बन्द कर देने लायक ही माना जायेगा। बिहार विद्यापीठ भारी कठिनाइयोंके बीच अपने आदर्शपर दृढ़ रहा है। उसके संघर्षों के बारेमें मैं जानता हूँ। बिहार गरीब प्रदेश है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वहाँ श्री-सम्पन्न जमींदार लोग नहीं हैं या दूसरे प्रान्तोंसे आये ऐसे समृद्ध और उद्यमी लोग वहाँ कुछ कम संख्या में हैं जो उस प्रान्त में व्यापार-व्यवसाय करके अपनी सम्पत्ति बढ़ा रहे हैं। विद्यापीठने दीक्षान्त समारोहमें पढ़ी गई अपनी वार्षिक रिपोर्टमें जो कुछ दावा किया है, उसपर ये लोग विचार करें और अगर इन्हें लगे कि उसका दावा सही है और अगर वे ऐसा मानते हों कि अभी मैंने जिन आदर्शोका उल्लेख किया है, वे ऐसे हैं जिनके लिए मनुष्यको जीना और मरना चाहिए, जिनकी ज्योति अपने हृदयमें जगाना देशके हर नौजवानका श्रेय होना चाहिए तो वे इस संस्थाको योग्य सहायता दें।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १-४-१९२६