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२२१. पत्र: जमनादासको

साबरमती आश्रम
मंगलवार, ३० मार्च, १९२६

चि० जमनादास,

तुम्हारा पत्र मिला। पाठशालाका मामला तो मैं स्वयं निपटा सका; उसके लिए तुम्हें यहाँ आने की जरूरत नहीं। लेकिन तुम स्वयं जब आश्वासनकी जरूरत महसूस करो तब आ सकते हो। झवेरी दीपचन्दको मैं जानता हूँ। मैं विलायत में उनके यहाँ रहा था। मेरे ऊपर उनकी छाप अच्छी नहीं पड़ी। लेकिन मेरी सलाह यह है कि जिस नवयुवकके साथ सगाई करनेकी बात हो, उसके गुणोंकी जाँच करना ज्यादा आवश्यक है। यदि वह अच्छा हो तो उसके पिताके बारेमें हमें सोचनेकी जरूरत नहीं। इसके सिवा, यदि दीपचन्द झवेरीका लड़का गुणवान हो तो मुझे ऐसा नहीं लगता कि दीपचन्दमें ससुरके रूपमें कोई भारी दोष होगा। इसलिए लीलाधर भाईको मेरी तो यह सलाह होगी कि उन्हें दीपचन्द झवेरीके बारेमें विचार न कर, उसके पुत्रके सम्बन्ध में ही जाँच-पड़ताल करनी चाहिए।

गुजराती प्रति (एस० एन० १९३९६) को माइक्रोफिल्मसे।

२२२. पत्र : कुँवरजीको

साबरमती आश्रम
मंगलवार, चैत्र बदी १ [३० मार्च, १९२६]

चि० कुँवरजी,

तुम्हारा पत्र मिला। मुझे इसीके बारेमें चि० बलीने भी पत्र लिखा था। तुमने मुक्त-भावसे लिखा सो ठीक ही किया। मुझसे जितनी हो सकेगी उतनी मेहनत करूँगा। मेरी सलाह है कि तुम भी रानीको पत्र लिखना शुरू कर दो। उसे भी मैंने तुम्हें पत्र लिखनेको कहा है। तुम अपने पत्रोंमें, जो-जो दोष तुम्हें दिखाई दिये हों, निस्संकोच होकर कहना। बड़ोंके होते हुए विवाहित लड़के-लड़कियोंको परस्पर पत्र न लिखनेका रिवाज अच्छा रिवाज नहीं है। हिन्दू-परिवारमें सचमुच देखा जाये तो लड़कोको शिक्षा विवाह के बाद ही पूरी होती है। जो पति उस शिक्षाके सम्बन्धमें उदासीन रहता है अथवा विषयासक्तिके कारण भूल जाता है वह अपने पत्नीके और धर्मके प्रति द्रोह करता है, ऐसा मैं अनुभवसे देख सका हूँ। तुम्हारा पत्र-व्यवहार इस शिक्षाका साधन हो सकता है।