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पत्र : प्रभालक्ष्मीको

निश्चय करना सम्भव होगा कि इस कार्यपर और अधिक पैसा लगाया जाना चाहिए अथवा नहीं।

आपका,

श्रीयुत सतीशचन्द्र दासगुप्त
कलकत्ता

अ० भा० च० सं० को सूचनार्थ एक प्रति।

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३९५) की माइक्रोफिल्मसे।

२२०. पत्र : प्रभालक्ष्मीको

साबरमती आश्रम
मंगलवार, चैत्र बदी १ [३० मार्च, १९२६]

चि० प्रभालक्ष्मी,

तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे पत्रमें अविनय मैं कहीं नहीं देखता, इसलिए तुम नियमित रूपसे लिखती रहना। किन्तु मुझे उसमें स्वप्नावस्था, अस्वस्थता और अस्पष्टता बहुत दिखलाई पड़ती है। तुम क्या कहना चाहती हो, यह समझना मुश्किल हो जाता है। इन दोषोंको तुम दृढ़तापूर्वक दूर करो, ऐसी मेरी इच्छा है। तुम्हारे पत्रमें ऐसी ध्वनि देखता हूँ कि वैधव्यजीवन हमेशा दुःखमय है, किन्तु अनुभव तो इससे ठीक उलटा है। इसमें शक नहीं कि बाल-वैधव्य अधिकांशतः दुःखमय होता है। लेकिन मैं यह जानता हूँ कि बचपनमें विधवा हुई अनेक बहनें अब बड़ी होकर अपने वैधव्यको शोभान्वित कर रही हैं। हिन्दू समाज में यह कोई आश्चर्यकी बात न होनी चाहिए। स्त्रीका पति एक ही होता है और पतिकी पत्नी एक ही होती है, लेकिन भाई अथवा बहन तो अनेक हो सकते हैं। तुम क्यों अनेक भाइयोंकी खोज नहीं करती? उनको सहायता क्यों नहीं माँगती? इसके सिवा, जहाँ ध्येय सेवा करना है, वहाँ सहायता भी क्या चाहिए? तुम अपने स्थानपर रहकर क्या कम सेवा कर सकती हो? शिक्षिकाका कार्य कोई छोटी चीज नहीं है। अपने पास आनेवाली बालिकाओंमें तुम जितनी [शिक्षा] उँडेलना चाहो उँडेल सकती हो। सेवाको ही जिसने धर्म मान लिया है, उसे तो हर घड़ी सेवाके अवसर मिलते रहते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम नींदसे जाग जाओ।

गुजराती प्रति (एस० एन० १०८४८) की माइक्रोफिल्मसे।