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२१५. पत्र : कुँवरजी वी० मेहताको

साबरमती आश्रम
रविवार, चैत्र सुदी १४ [२८ मार्च, १९२६]

भाईश्री ५ कुँवरजी,

अभी-अभी भाई कल्याणजीका पत्र मिला। उसमें उन्होंने भाई डाह्याभाईकी मृत्युका समाचार दिया है। डाह्याभाईकी स्थितिका वर्णन भी किया है। यह भी लिखा है कि तुम पति-पत्नी दोनोंने बहुत धीरजसे काम लिया। उस समय हुए गीतापाठके बारेमें भी लिखा है। जहां धीरज सहज ही रहता है, वहाँ मुझे धीरजका उपदेश देने की जरूरत नहीं होती। लेकिन तुम दोनोंके विश्वासको अधिक निर्मल बनानेके लिए इतना तो अवश्य लिखूँगा कि जिसे आत्माके अस्तित्वके बारेमें पूरा विश्वास है वह, चाहे कितनी ही अनपेक्षित मृत्यु क्यों न हो, उससे न तो डरता है, न विचलित होता है। ठेठ युवावस्थामें अथवा बचपनमें भी जो मृत्यु होती है, वह भी प्रकृतिके नियमके अनुसार ही होती है। इन सब नियमोंको हम जानते नहीं, इसीलिए भयभीत रहते हैं। लेकिन हम यह विश्वास क्यों न रखें कि डाह्याभाईकी आत्माके लिए उस शरीरका कोई उपयोग न रह गया था, इसीलिए वह चला गया। निरुपयोगी वस्तुका तो त्याग करना ही उचित है। इस बातका विचार करें तो हम देख सकते हैं कि दुःखी होनेका कोई ठीक कारण नहीं है। हम उस शरीरका उपयोग करते थे, इस हदतक हमें उसके न रहनेका दुःख लगना ठीक है। लेकिन यह तो स्वार्थका दुःख हुआ। सेवकको स्वार्थ किस बातका ? इस तरह ज्ञानपूर्वक समझकर तुम सब पूरी तरह निश्चिन्त हो जाओ और अपने-अपने काम में लग जाओ, ऐसी मेरी इच्छा है। यदि निश्चिन्त न हो सको तो यह जानो कि तुम्हारे दुःखमें जैसे अन्य लोग गीदार हैं, वैसे मैं भी हूँ। थोड़ा-थोड़ा करके सबमें बाँट लेना। सच्ची शान्ति तुमको रामनाम देगा।

बापूके आशीर्वाद

गुजराती पत्र (जी० एन० २७१५) की फोटो-नकलसे।

 
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