पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 30.pdf/२४४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२०८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मन्त्र सदा बोले जाते रहे हों, प्राकृत भाषाओं में अनूदित करनेसे और इन अनुवादोंसे ही सन्तोष मान लेने से उन मन्त्रोंका गाम्भीर्य कम हो जाता है। परन्तु प्रत्येक मन्त्रका और जिनके लिए वे मन्त्र बोले जायें, उन सारी क्रियाओंका अर्थ उन्हें उनकी भाषामें अवश्य समझाया जाना चाहिए, इसके बारेमें मेरे मनमें तनिक भी शंका नहीं है। मेरी राय यह भी है कि किसी भी हिन्दूकी शिक्षा जबतक उसे संस्कृत भाषाके मूल तत्त्वोंका ज्ञान नहीं कराया जाता, तबतक अधूरी ही है। मेरे लिए तो संस्कृतके विशाल ज्ञानके बिना हिन्दू धर्मके अस्तित्वकी कल्पना करना भी सम्भव नहीं है। भाषा कठिन तो हमने अपने पाठ्यक्रम के द्वारा बना दी है; वह वस्तुतः कठिन नहीं है। परन्तु यदि वह कठिन हो भी तो धर्मका पालन इससे भी कठिन है। अतएव, जिन्हें धर्मका पालन करना है, उन्हें तो इसका पालन करने के लिए जो साधन आव श्यक हों वे कठिन होते हुए भी आसान हो लगने चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २८-३-१९२६

२१४. पत्र: घनश्यामदास बिड़लाको

साबरमती आश्रम
[२८ मार्च, १९२६][१]

भाई घनश्यामदास,

आपका पत्र मिला। अभी जमनालालजीका तार आया है कि मैं एप्रिल १५ तारीखके बाद यहाँसे रवाना हो जाउ तो काफी होगा। इस वख्त तो यहांकी हवा बहुत ही अच्छी है। प्रातःकालमें खूब ठण्डी रहती है। और दिनभरमें कुछ ज्यादह गरमी नहीं होती है।

आप अवश्य विश्वास करें कि अगर मैं दोनों पक्षको[२] एकदम मिला सकूं तो पूरा प्रयत्न कर लूं। परंतु इस समय यह कार्य मेरी शक्तिकें बहार मालुम होता है। स्वराज्य पक्षके लिये तो हमारा मतभेद रहेगा ही। मौलाना महमदअलीकी भाषामें, व्यक्तिओंको छोड़कर जब दो क्रीड—सिद्धान्तको तुलना करनेका समय आता है तब कहना पड़ता है कि स्वराजदलका सिद्धान्त दूसरेके मुकाबले में अवश्य प्रशंसनीय हैं। भले दोनों असहयोगके मुकाबले में कनिष्ठ हो।

आपका,
मोहनदास

मूल पत्र: (सी० डब्ल्यू० ६१२३) से।
सौजन्य: घनश्यामदास बिड़ला।
 
  1. स्पष्ट है कि यह घनश्यामदास बिड़ला द्वारा गांधीजीको लिखे २४-३-१९२६ के पत्र (एस० एन० १०८५७) के उत्तर में लिखा गया था।
  2. मदनमोहन मालवीय तथा मोतीलाल नेहरूका पक्ष ।