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कुछ धार्मिक प्रश्न

रहे, उसका त्याग करे, उसकी इच्छा न करे अथवा उसे माँगे ही नहीं। लेकिन इच्छा करनेके बावजूद और माँगनेके बावजूद वह न मिलें तब भी जो मनुष्य स्वस्थ-चित्त रह सकता है और स्वाभिमान बनाये रख सकता है, वही स्वावलम्बी है। जो किसान दूसरेकी मदद मिल सकनेकी सुविधाके बावजूद खुद ही खेती करता है, बोता और काटता है, खेतीके औजार भी स्वयं बनाता है, अपने कपड़े भी कात-बुनकर खुद तैयार करता है, अपना अनाज उगाता है और घरकी चिनाई भी खुद करता है, वह या तो बेवकूफ है या अभिमानी है या जंगली है। स्वावलम्बनमें शरीर-यज्ञ तो आ ही जाता है। शरीर-यज्ञका मतलब यह सिद्धान्त है कि प्रत्येक मनुष्यको अपनी आजीविका के लिए शारीरिक श्रम करना ही चाहिए। इसलिए जो मनुष्य आठ घंटे खेती में काम करता है, उसे बुनकरकी, बढ़ईकी, लुहारकी और राजकी मदद लेनेका अधिकार है। यह मदद लेना उसका धर्म है और यह मदद उसे सहज ही मिलती भी है। दूसरी ओर, बढ़ई, लुहार आदि कारीगर किसानके श्रमके फलस्वरूप अन्नादि प्राप्त कर सकते हैं। जो आँख हाथकी मददके बिना काम चलानेका इरादा रखती है, वह आँख स्वावलम्बी नहीं है, वरन् अभिमानी है। और जिस तरह हमारे शरीर में हमारे अवयव अपने-अपने कार्यके विषय में स्वाश्रयी हैं, स्वाश्रयी होते हुए भी एक-दूसरेकी सहायता करनेके कारण परोपकारी हैं और उसी तरह एक-दूसरेकी सहायता लेनेके कारण पराश्रयी हैं, ठीक उसी प्रकार हम हिन्दुस्तान-रूपी शरीरके तीस करोड़ अवयव हैं; हमें अपने-अपने क्षेत्रमें स्वाश्रयी बननेके धर्मका पालन करना चाहिए और यह सिद्ध करनेके लिए कि हम सब एक राष्ट्रके अंग हैं, हमें परस्पर एक-दूसरेकी मदद करनी चाहिए और लेनी चाहिए। तभी हम कह सकते हैं कि हमने अपना एक राष्ट्रके रूप में विकास कर लिया है, और हम राष्ट्रवादी हैं।

प्र०—आजकल विवाहकर्म, सन्ध्या, यज्ञ-कर्म, प्रार्थना आदि संस्कृत मंत्रों की जाती है। करानेवाले मन्त्रोंको बोलते हैं और करनेवाले इनका रहस्य जाने बिना इनमें शामिल होते हैं। आज संस्कृत मातृ-भाषा नहीं रही। अनेक संस्थाएँ लोगोंको प्रार्थना, सन्ध्या, यज्ञ आदि संस्कृतके मन्त्रोंमें ही करनेके लिए कहती हैं। इन लोगोंको संस्कृत भाषाका ज्ञान तो होता नहीं, अतः वे एकाग्रचित्त कैसे हो सकते हैं? इसके अतिरिक्त संस्कृत बहुत ही कठिन भाषा है। इसलिए में उसके मन्त्रोंको मुखाग्र करना तथा उसके अर्थको याद रखना दुहरी मुसीबत मानता हूँ। जिस समय संस्कृत मातृ-भाषा थी, उस समय जन-समाजका सारा कामकाज इस भाषाके द्वारा होता था और यह ठीक भी था। परन्तु आज स्थिति ऐसी नहीं रही। अतः प्रत्येक मनुष्य अपनी किया अपनी मातृ-भाषामें करे, यह लाभदायक है। परन्तु फिलहाल तो इसके विपरीत ही कार्य किया जा रहा है। जन-समाजमें उपरोक्त धार्मिक कार्य संस्कृत के माध्यमसे ही कराये जाते हैं।

हिन्दुओंकी समस्त धार्मिक क्रियाओंमें संस्कृतका व्यवहार किया जाना चाहिए, ऐसा मेरा मत है। अनुवाद चाहे कितना ही अच्छा हो, परन्तु विशेष शब्दोंकी ध्वनिमें जो रहस्य होता है, वह अनुवादमें नहीं मिलता। इसके सिवा इन मन्त्रोंको ऐसी एक भाषासे जो हजारों वर्षोंके प्रयोगसे संस्कार-समृद्ध हुई हो और जिसमें ही वे