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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

शुद्धि-जैसा तुच्छ फल प्राप्त हो सकता है या नहीं। और वायु-शुद्धिकी दृष्टिसे तो आज भौतिक शास्त्रका आधुनिक ज्ञान हमें अच्छी मदद दे सकता है। शास्त्रोंके सिद्धान्त व्यवहारसे पृथक् वस्तु हैं। सिद्धान्त सर्वकाल और सर्वस्थानपर एक ही होते हैं। क्रियाएँ काल और स्थानके अनुसार बदलती रहती हैं।

प्र०—हम लोगोंमें सामान्यतः ऐसा कहा जाता है कि मनुष्यका जन्म बार-बार नहीं मिलता, इसलिए प्रभुका भजन करो। यह मनुष्य जन्म गँवा दोगे तो फिर चौरासी लाख योनियोंमें चक्कर काटना पड़ेगा। इस कथनमें क्या सत्य है? कबीर भी एक भजनमें कहते हैं: (भजनकी आखिरी कड़ी)

"कहे कबीर चेत अजहूँ, नहि फिर चौरासी जाई।
पाय जन्म शूकर-कूकरको भोगेगा दुःख भाई। "

इससे क्या सार ग्रहण करने योग्य है?

इस बातको मैं अक्षरश: माननेवाला हूँ। अनेक योनियोंमें भटकनेके बाद मनुष्यजन्म मिल सकता है और मोक्ष अथवा द्वन्द्व आदिसे सर्वथा मुक्ति मनुष्य-देहके द्वारा ही मिल सकती है। यदि आत्मा अन्ततः एक ही है तो अनेक आत्माओंके रूपमें उसका असंख्य योनियों में भटकना असम्भव अथवा आश्चर्यजनक नहीं लगना चाहिए। इस बातको बुद्धि भी स्वीकार करती है और कुछ लोग तो अपने पूर्वजन्मकी स्मृति भी प्राप्त कर सकते हैं।

प्र०—प्राणायामसे समाधि-लाभ करनेवाला योगी तथा इन्द्रिय-संयमी, इन दो मनुष्यों में से कौन अपनी आत्माका अधिक कल्याण करता है?

इस प्रश्नमें संयम और योगकी कल्पना दो विरोधी वस्तुओंके रूपमें की गई है। वस्तुतः एक दूसरेका कारण है, अथवा एक दूसरेका पूरक है। संयमविहीन समाधि कुम्भकर्ण की निन्द्रा है और समाधिके बिना संयम कठिन है। यहाँ समाधिका व्यापक अर्थ हठयोगोकी समाधिका ही नहीं लेना चाहिए। हठयोगीकी समाधि इन्द्रिय-संयमके लिए अनिवार्य भी नहीं है। यह समाधि भले ही सहायक हो सकती है, लेकिन आज तो सामान्य समाधि ही इष्ट है। सामान्य समाधि अर्थात् अभीष्ट कार्य में तन्मय होनेको शक्ति। यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्द्रिय-संयमके बिना योगकी साधना निरर्थक है।

प्र०—कोई स्वावलम्बी मनुष्य अपनी आवश्यकताका अन्न खेती करके स्वयं पैदा करे, खेतीके लिए जरूरी औजार हल आदि भी स्वयं बनाये, बढ़ईका काम भी खुद करे, अपने कपड़े भी स्वयं बनाये और रहनेके लिए घर भी खुद बना ले—संक्षेपमें उसे जिन चीजोंकी जरूरत पड़ती है, उन्हें यदि वह खुद बनाता है, अपनी जरूरतकी चीजें बनाने के लिए यदि वह दूसरोंकी सहायताका उपयोग नहीं करता तो उसका ऐसा करना उचित है अथवा अनुचित? स्वावलम्बीकी आपकी व्याख्या क्या है?

स्वावलम्बनका अर्थ है—किसीकी मदद लिये बिना अपने पाँवपर दृढ़तापूर्वक खड़े रहनेको शक्ति। इसका अर्थ यह नहीं कि मनुष्य दूसरोंकी मददके बारेमें उदासीन