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२०४. पत्र : फ्रेड्रिक हाइलरको

साबरमती आश्रम
२७ मार्च, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र और पुस्तक मिली; दोनोंके लिए धन्यवाद। मुझे खेद है कि मैं खुद जर्मन भाषा नहीं समझता, लेकिन मैं आपकी पुस्तकको अपने एक मित्र द्वारा समझने का प्रयत्न करूँगा।

मैं समझता हूँ, साधु सुन्दर सिंहके बारेमें मैं कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं दे सकता। मुझे उनसे केवल एक ही बार मिलनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अपने एक ईसाई मित्रके अनुरोधपर मैंने उन्हें आश्रम आने और हमारे साथ चन्द घंटे बितानेको निमन्त्रित किया था; और उन्होंने यूरोप जाते हुए मेरा अनुरोध पूरा करनेकी कृपा की थी। लेकिन मैंने उनके अनुभवोंके बारेमें कोई पूछताछ नहीं की, और न बादमें ही कभी इसकी जरूरत महसूस की है।

हृदयसे आपका,

श्रीयुत फ्रेड्रिक हाइलर

प्रोफेसर ऑफ कम्पेरेटिव रिलीजन

मारवर्ग यूनिवर्सिटी, जर्मनी

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १२४३५) की फोटो-नकलसे।

२०५. पत्र: जी० पी० नायरको

साबरमती आश्रम
२७ मार्च, १९२६

प्रिय मित्र,

मेरे नाम आपने जो खुला पत्र लिखा था उसका कोई उत्तर न देने से आपके मनको चोट पहुँची, इसका मुझे दुःख है। फिर भी मैं आपको बता दूँ कि खुले पत्रपर ध्यान देना अथवा उसे पढ़ लेनेकी सूचना देना जरूरी नहीं होता। खुले पत्र लोक-सेवी व्यक्तियोंको इस खयालसे लिखे जाते हैं कि वे, जिन विषयोंकी इन पत्रों में चर्चा होती है, उनपर विशेष रूपसे ध्यान दें। कभी-कभी, जब मुझे लगता है कि पत्रमें मेरे उद्देश्यकी अवमानना की गई है या उसे गलत रूपसे पेश किया गया है और मैं जवाब देकर उस उद्देश्यकी सेवा करूंगा तब मैं जवाब देता हूँ। आपके प्रति अभद्रता दिखलानेका मेरा कोई इरादा न था। इस बार आपने जो अनुरोध किया