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१९६. पत्र : मुहम्मद शफीको

साबरमती आश्रम
२६ मार्च, १९२६

प्रिय मित्र,

आपका पत्र और उसके साथ पण्डितजोके वक्तव्यके जवाबमें आपका वक्तव्य मिला। आपकी व्यथामें मैं साझेदार हूँ। कुल मामला बहुत खेदजनक है। लेकिन मैं ईश्वरके इस वचनपर भरोसा रखकर चलता हूँ कि इस संसारमें शाश्वत दुःख या शाश्वत सुख-जैसी कोई चीज नहीं है और इसलिए यदि व्यक्ति प्रतीक्षा करे और विश्वास रखे तो हर दुःखके बाद सुख प्राप्त होता है। मैं तो धैर्य रखता हूँ, क्योंकि मेरे अन्दर आस्था है और इसीलिए मेरी आँखोंके सामने जो दुःखद बातें हो रही हैं, उनपर मैं रोता नहीं।

हृदयसे आपका,

मौलवी मुहम्मद शफी, एम० एल० ए०

५, विंडसर प्लेस
रायसीना

दिल्ली

अंग्रेजी प्रति (एस० एन० १९३८४) को माइक्रोफिल्मसे।

१९७. पत्र : हकीम अजमलखाँको

साबरमती आश्रम
२६ मार्च, १९२६

प्रिय हकीम साहब,

आपको उर्दू में पत्र नहीं लिख रहा हूँ, इसके लिए आपको मुझे माफ करना ही होगा। मुझे दाहिने हाथसे लिखनेको मनाही है। बायें हाथसे उर्दू में लिखना बड़ी मेहनतका काम है। और अभी इस वक्त, जब मुझे कमसे-कम काम करना चाहिए, मैं आपको उर्दू में पत्र लिखने में बहुत ज्यादा समय नहीं लगाना चाहता। इसीलिए बोलकर पत्र लिखवा रहा हूँ।

तो आखिर आपपर मेरी देख-भालकी जिम्मेदारी भी डाल दी गई है मानो इस जिम्मेदारीके बिना आपकी परेशानियोंमें कुछ कसर रह गई थी। आपका अन्तिम तार मिल गया है। मैं अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूँ। किसी ज्यादा ठंडे स्थानको जानेके लिए आश्रम छोड़नेका अभी मेरा कतई मन नहीं है और इसीलिए

 
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