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पत्र: फूलचन्दको

किया जान पड़ता है। ऐसा हो तो मुझे बुरा नहीं लगेगा। मतलब यह कि हम लोगोंको कपास इकट्ठा करनेकी सलाह दें और उसे पिंजवाकर तथा बुनवाकर भी दें। किन्तु यह सब उनके खर्चपर होना चाहिए। कारण, यदि हम ऐसा नहीं करते तो इसका अर्थ यह होगा कि हम खादी आन्दोलनके रहस्यको नहीं समझ पाये हैं। खादी आन्दोलनका मुख्य ध्येय विदेशी कपड़ेका बहिष्कार नहीं, अपितु जिनके पास काम नहीं है, उन्हें काम देना है और यथासम्भव उनके भूखके कष्टको दूर करना है। ऐसा करनेका परिणाम बहिष्कार हो सकता है। किन्तु यदि इस परिणामको हम साध्य मान बैठें तो हम गिर जायेंगे। यदि हिन्दुस्तानमें भुखमरी और बेरोजगारी परस्पर कार्य-कारणरूप न हों तो मैं चरखेपर से अपने हाथको उठा लूँ।

हमें इस बातको सामने रखकर चलना चाहिए। इसीलिए हमारा कार्य गरीबोंके हाथों खादी बुनवाना और उसे सामान्य वर्गको बेचना है। इस दृष्टिसे अमरेलीमें खादीका ज्यादा इकट्ठा हो जाना मुझे भयानक नहीं लगता। हाँ, इस खादीको काठियावाड़से बाहर ले जानेकी परिस्थिति मुझे अवश्य भयानक लगेगी। लेकिन यदि ऐसे काम न चले तो इस तरह तैयार हुई खादीको मैं हिन्दुस्तानसे बाहर भेजनेको भी तैयार हो जाऊँगा—फिर बम्बई आदिकी तो बात ही क्या है? इसलिए मेरी कसोटी एक ही हो सकती है—वह यह कि हम देखें कि जहाँ-जहाँ हम खादी तैयार करवाते हैं, वहाँ-वहाँ जिनके पास दूसरा कोई धन्धा नहीं, ऐसे गरीबोंसे ही हम कतवाते हैं या नहीं और उन्हें जो दर देते हैं वह स्वीकृत दर है या नहीं; और सूत बलदार काता जाता है कि बेगार टाली जाती हैं। यदि इन तीन बातोंका उत्तर सन्तोषकारक आये तो वहाँ हम यह प्रवृत्ति चलने देंगे।

गोंडल और जामनगरके बारेमें मैंने जो उद्गार व्यक्त किये थे, उनके बारेमें यदि लोगोंने बहुत आशा बांधी थी तो यह उनका दोष है। निराश होनेके बावजूद वे अपने काममें लगे रहें तो ठीक ही है। और यदि वे हमारा त्याग कर देते हैं तो हम क्या कर सकते हैं? हमारे हाथमें तो प्रयत्न करना ही है।

दीवान साहबका पत्र भेजता हूँ। सँभालकर रखिए। मुझे वापस न भेजें। राणासाहब आ गये हैं, ऐसा सुना है। इसलिए मैं आज याद दिलाने के लिए पत्र लिख रहा हूँ।

अन्त्यज आश्रमके लिए मैंने पाँच हजार रुपये देनेकी बात कही थी सो दो महीनेमें, अर्थात् जूनमें भेजनेकी आशा रखता हूँ। मैं अप्रैलके आरम्भमें यहाँसे निकल चुका होऊँगा। मईके अन्तमें वापस पहुँच जाऊँगा और तुरन्त पाँच हजारका प्रबन्ध कर लूँगा। ऐसा हुआ तो काम ठीक समाप्त हो गया माना जायेगा न?

इस पत्रको देवचन्दभाईको पढ़ा दीजिएगा। जबतक दीवान साहबका उत्तर नहीं आता तबतक पोरबन्दरमें सभा न की जाये, यह ठीक ही है। अब मुझे नहीं लगता कि आपके पत्रकी किसी भी बातका उत्तर बाकी रह गया है।

गुजराती प्रति (एस० एन० १९३८०) की फोटो-नकलसे।