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तमिलनाडुका एक गाँव

खुचा अन्नादि सड़कपर नहीं फेंकता है। हर घरके पीछेवाले अहातेमें अच्छे ढंगसे बनाये गये खादके गड्ढेमें ही सबकुछ डाला जाता है।

मेरे मेजबानके घरका भीतरी भाग व्यवस्था और सफाईका नमूना था।...खासे बड़े आकारके और कील-काँटेसे बिलकुल दुरुस्त दो चरखे, जिनके तकुए ताजे कते सूतसे भरे थे, हॉलकी शोभा बढ़ा रहे थे। घरकी औरतोंके व्यवहारमें दमघोंटू संकोच नहीं था और न उनमें किसी किस्मका पर्दा हो था।...

हम लोग दूसरे परिवारोंको देखने भी गये। हर घरमें अपना चरखा था, और वे सारे चरखे बिलकुल ठोक काम करनेकी अवस्थामें थे। हर जगह लोगोंने हमें अपना काता हुआ सूत और अपने बनाये कपड़े दिखाये।...

इस सुन्दर गाँवने ऐसे दिलपर ठंडे मरहमका काम किया जो सारे देशमें सब जगह निष्ठुर उपेक्षा और लंकाशायरका कपड़ा देख-देखकर व्यथित था।

हम द्रौपदीके मन्दिरके सामने थे और मैंने लोगोंसे कहा कि वे द्रौपदीका उदाहरण याद रखें। अगर द्रौपदीकी तरह भारत ईश्वरमें विश्वास रख सके और गांधीके द्वारा प्रस्तुत किया हुआ चरखा अपना सके तो वह अपनेको प्रताड़ना और अपमानसे बचा सकता है। कालंगल उस फूलके समान है, जो डालसे तोड़ा नहीं गया है और अपनी ताजा खुशबू सब तरफ बिखेर रहा है। अन्य गाँवोंको भी उसके उदाहरणका अनुकरण करना चाहिए। सूबरी और उनके मित्र, जिन्होंने १९२४ में इस उर्वर मिट्टीमें यह बीजारोपण किया था, पूरे सम्मानके पात्र हैं।—सी० आर०।[१]

कितना अच्छा होता यदि कालंगल-जैसे और भी बहुत-से गाँव होते! स्पष्ट है कि इस गाँवमें चरखेकी प्रगतिके साथ-साथ सफाई और स्वच्छता बढ़ती गई है। इस बातको अन्य स्थानों के कार्यकर्त्ताओंको भी ध्यान में रखना चाहिए।

[अंग्रेजी से]
यंग इंडिया, २५-३-१९२६
 
  1. चक्रवर्ती राजगोपालाचारी।