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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

न करने देनेके वैधानिक अधिकारका लाभ न उठाकर मैं उन अखबार- मालिकोंके पापोंका भागीदार बनता हूँ, जो पत्र-लेखक द्वारा उल्लिखित ढंगके विज्ञापन छापते हैं। बेशक, मैं इन विज्ञापनोंसे हृदयसे घृणा करता हूँ। निस्सन्देह, मैं ऐसा मानता हूँ कि इन अनैतिक विज्ञापनोंके बलपर अखबार चलाना सरासर गलत है। मैं यह भी मानता हूँ कि अगर विज्ञापन स्वीकार किये ही जायें तो अखबार मालिकों और सम्पादकोंकी ओरसे उनकी वांछनीयताकी कड़ी पूर्व परीक्षाकी व्यवस्था होनी चाहिए, और सिर्फ स्वस्थ विज्ञापन हो लिये जाने चाहिए। लेकिन, अगर मैं स्वत्वाधिकारके नियमका उपयोग नहीं करता तो उससे अनैतिक विज्ञापन छापनेके अपराधका भागीदार नहीं बन जाता। मसलन, अगर मैं अखबारोंके दफ्तरों में जा-जाकर उनके मालिकोंसे इस बात के लिए कि वे आपत्तिजनक विज्ञापनोंको स्थान न दें, दो-दो हाथ नहीं करता तो क्या में इन विज्ञापनोंके प्रकाशनके अपराधका भागीदार बन जाता हूँ? अनैतिक विज्ञापनोंकी बुराईके शिकार तो पत्र-पत्रिकाएँ भी होती जा रही हैं जो सबसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाएँ मानी जाती हैं। यह परिष्कार मुझ जैसे किसी शौकिया सम्पादकके प्रभावसे सम्भव नहीं है। यह तो तभी सम्भव है जब खुद उन्हींकी अन्तरात्मा इस बढ़ती हुई बुराईको पहचानेगी या जब जनताका प्रतिनिधित्व करनेवाली और जनता के नैतिक हितोंका खयाल करनेवाली कोई सरकार उनपर यह प्रतिबन्ध थोप देगी।

[अंग्रेजी से]
यंग इंडिया, २५-३-१९२६

१८९. तामिलनाडुका एक गाँव[१]

सूबरीने मुझसे आग्रह किया कि मैं कालंगल अवश्य जाऊँ। उन्होंने कहा:

वह एक ऐसा स्थान है जो आपको देखना चाहिए। आपने अन्तिपालयम्दे खा है और पसन्द किया है। कालंगल अन्तिपालयम्से ज्यादा अच्छी जगह है।

सूबरीको, जिनका पूरा नाम श्रीयुत के० सुब्रह्मण्यम् है, हर कोई चाहता है।—बच्चे-बूढ़े, स्त्री-पुरुष सब उनपर मुग्ध हैं। इसका रहस्य उनका बाल-सुलभ भोलापन और उनकी सेवाभावना है। वे एक युवक-रत्न हैं। केवल सूबरीको खुश करने के लिए हो मैं कुछ भी कर सकता हूँ। इसीलिए मैं कालंगल गया। यह कोयम्बटूरसे १३ मील दूर स्थित एक गाँव है।...

गाँवकी स्वच्छता और सफाई अद्भुत थी।...वहाँ मैंने सड़कोंपर आवारा फिरनेवाला एक भी कुत्ता नहीं देखा। क्योंकि कोई भी पत्ते या बचा-

 
  1. यहाँ गांधीजीकी टिप्पणीके साथ-साथ चक्रवर्ती राजगोपालाचारी द्वारा लिखे लेखके कुछ अंशोंका ही अनुवाद दिया जा रहा है।