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उनकी उलझन

व्यवस्था समाजके लिए स्वास्थ्यकर है। वर्तमान जाति-व्यवस्था अपनी अहंकारपूर्ण वर्जनशीलताके साथ अब नष्टप्राय है। असंख्य उपजातियाँ अब स्वयं इतनी शीघ्रताके साथ नष्ट हो रही हैं कि उसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

परन्तु में हजारवीं बार यह दोहराऊँगा कि मैंने एक साथ खानेके लिए कभी नहीं कहा है और न मैंने जबरदस्ती मन्दिरमें घुसनेकी सलाह दी है। परन्तु मैंने यह अवश्य कहा है, और आज फिर कहता हूँ कि हमारे इन देश-भाइयोंको मन्दिरमें प्रवेश करने से रोका नहीं जा सकता। मन्दिरमें प्रवेश करनेके लिए सत्याग्रह करनेका समय अभी नहीं आया है।

यह हमारे लिए लज्जाकी बात है और यह हमारा ही अपराध है कि दलित वर्गोके लोग गाँव और शहरके बाहर रहते हैं और नारकीय जीवन व्यतीत करते हैं। हम अपनी असहायावस्थाके लिए और हममें अपनी इच्छा और सूझ-बूझसे सही काम करनेके गुण तथा मौलिकताका जो अभाव है, उसके लिए अंग्रेज शासकोंको दोष देते हैं और उन्हें दोष देना बिलकुल उचित है। किन्तु, तब इसी प्रकार हमें अस्पृश्योंको वर्तमान अवदशातक पहुँचानेमें उच्च वर्णोके लोगोंका जो दोष है, उसे भी स्वीकार करना चाहिए।

ऐसा मालूम होता है कि लेखक इस बातको स्वीकार करते हैं कि हमारे अज्ञान और वहमके शिकार बने हुए इन लोगोंको भौतिक और आध्यात्मिक शिक्षा मिलनी चाहिए। लेकिन जबतक हम लोग समानता के स्तरपर उनके साथ खुलकर मिलते-जुलते नहीं तवतक यह काम कैसे किया जा सकता है? सच तो यह है कि उनकी बनिस्बत खुद हमें ही ज्यादा आध्यात्मिक शिक्षाकी आवश्यकता है। हमारी आध्यात्मिक शिक्षाका 'क, ख, ग' हमारे अहंकारको छोड़कर इन दलित भाइयोंसे तादात्म्य स्थापित करनेसे ही आरम्भ होना चाहिए।

लेखकने साम्यवादियोंकी अस्पृश्योंके साथ तुलना की है। यह केवल बातको उलझाता है। लोग जन्मसे साम्यवादी नहीं बनते हैं और अस्पृश्य तो जन्मसे ही होते हैं। साम्यवादका सम्बन्ध विशिष्ट वैचारिक मान्यताओंसे है, जबकि अस्पृश्यता बाहरसे लादी गई एक असुविधा है। रही मेरी बात, सो कांग्रेस सप्ताह के दौरान मैंने साम्यवादियोंको टाल नहीं दिया था। मैं उनसे बराबर मिलता था और यदि मेरे पास समय होता तो मैं सम्भवतः उनकी सभामें भी जाता। कांग्रेसके विधि-विधानको माननेपर साम्यवादी भी कांग्रेसमें शामिल हो सकते हैं। मैं अस्पृश्योंके पक्षका समर्थन इसलिए करता हूँ कि मैं यह मानता हूँ कि हमने उनके साथ बड़ा अन्याय किया है। यदि साम्यवादियों की बात भी मुझे ग्राह्य मालूम हुई, तो मैं उसका भी समर्थन करूँगा।

अन्तमें, यदि लेखक खादीमें विश्वास रखते हैं और खादी पहनते भी हैं तो उन्हें सूत कातकर अपना पूर्ण विश्वास जाहिर करना चाहिए और उसके उत्पादनमें, बहुत थोड़ा भी क्यों न हो, अपना योग देकर करोड़ों लोगोंके साथ तादात्म्य स्थापित करना चाहिए।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २५-३-१९२६