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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यदि खादीसे सम्बन्धित दूसरी संस्थाएँ भी अपने मासिक आँकड़े समयपर अखिल भारतीय चरखा संघको भेज दें तो खादीको प्रगतिका महीने-दर-महीने लेखा देना सम्भव होगा। खादीके बढ़ते हुए उत्पादन और विक्रयके आँकड़े देनेसे खादीके महत्त्वका जितना प्रमाण मिलता है, उतना अन्य किसी बातसे नहीं मिल सकता।

जैसा कि सतीश बाबूने बिहार विद्यापीठके तत्वावधान में आयोजित प्रदर्शनी में दिये गये अपने भाषण में बताया है. एक-एक गजका मतलब है, उसकी कीमतके बराबर पैसा सीधा गरीबोंकी जेबमें डालना। ये गरीब वे लोग हैं, जिनके पास किसी दूसरी तरहसे नहीं पहुँचा जा सकता, जिनके पास कोई दूसरा धन्धा नहीं है और निजकी आयमें एक पैसेकी वृद्धि भी उनके लिए कीमत रखती है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २५-३-१९२६

१८६. उनकी उलझन

यदि निम्नलिखित पत्रके[१] लेखकने 'यंग इंडिया' के पृष्ठोंको देखनेकी तकलीफ उठाई होती तो उन्हें मालूम हो जाता कि उन्होंने जो प्रश्न किये हैं, उन सबका उत्तर पहले ही दिया जा चुका है। फिर भी जितनी बार भूल की जाये उतनी बार यह बताना चाहिए कि सही बात क्या है, इस सिद्धान्तके अनुसार पत्र-लेखक और उनके जैसे विचार रखनेवाले अन्य लोगोंके लिए मैं उनके प्रश्नोंका उत्तर देता हूँ।

बेशक, यदि हिन्दू विचारपूर्वक और सोच-समझकर अपने प्रयत्नोंसे, केवल नीतिके तौरपर नहीं परन्तु आत्मशुद्धिके लिए, अस्पृश्यताके कलंकको दूर कर देंगे तो उनके इस कार्यसे राष्ट्रको सही काम करनेके एहसाससे जो शक्ति प्राप्त होगी, उससे स्वराज्य प्राप्त करनेमें बड़ी मदद मिलेगी। आज हम लोग असमर्थ हैं, क्योंकि हम ऐक्यकी शक्तिको खो बैठे हैं। जब हम पाँच या छः करोड़ अस्पृश्योंको अपना समझना सीख लेंगे तभी तो हम एक राष्ट्र बननेका प्रथम पाठ पढ़ेंगे। आत्म-शुद्धिके इसी एक कार्यसे शायद हिन्दू-मुस्लिम समस्या भी हल हो जायेगी। कारण, इसमें भी अस्पृश्यताका विनाशकारी विष जाने-अनजाने काम कर रहा है। यदि हिन्दू धर्मकी रक्षा करनेके लिए अस्पृश्यताकी कृत्रिम दीवारकी आवश्यकता है तो इसका मतलब है कि हिन्दू-धर्म बड़ा ही दुर्बल है।

यदि "अस्पृश्यता" और "जाति-प्रथा" ये दोनों शब्द पर्यायवाची हैं तो इस प्रथाका जितनी जल्दी नाश हो, तमाम सम्बन्धित लोगोंके हकमें उतना ही अच्छा है। लेकिन जाति यदि वर्णका पर्यायवाची है तो मुझे इस बातका पूरा यकीन है कि यह

 
  1. पत्रका अनुवाद यहाँ नहीं दिया जा रहा है। पत्र-लेखकने लिखा था कि आप खादी और अस्पृश्यता निवारणपर बहुत जोर देते रहे हैं। मैं खादी पहनता तो हूँ लेकिन चरखा नहीं चलाता हूँ। इसके बाद उसने अस्पृश्यता निवारणकी आवश्यकता और उपयोगितापर अपनी शंकाएँ व्यक्त की थीं।