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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

आबोहवामें इतनेसे ही सन्तुष्ट रहना मुझको विशेष योग्य लगता है। आप अपना अभिप्राय मुझको भेज दें। आप ऐसा क्यों कहते हैं कि केवल मालवीयजी, मोतीलालजी और मेरी ही जिम्मेदारी है? आप इस तरहसे छूट नहीं सकते हैं। कमसे कम जितनी हम तीनोंकी इतनी तो आपकी है ही है। आपका स्वास्थ्य अच्छा होगा।

मूल प्रति (एस० एन० १९३७७) की फोटो-नकलसे।

१८२. पत्र : आनन्दलालको

साबरमती आश्रम
बुधवार, प्रथम चैत्र सुदी ११ [२४ मार्च, १९२६]

चि० आनन्दलाल,

तुम मुझे क्यों पत्र लिखोगे? आने-जानेवाले लोगोंसे तुम्हारे बारेमें सुनता हूँ और क्षण-भरके लिए दुःखी भी हो जाता हूँ। ऐसा जान पड़ता है कि चि० काशी और उसके बच्चोंके भरण-पोषणके लिए तुम कुछ भी नहीं देते। लेकिन काशी के हिस्सेका जो मकान है, उसका भाड़ा उसकी मिल्कियत है, वह भी तुम उसे नहीं देते, ऐसा मुझे मालूम हुआ है। यदि ऐसा हो तो यह शर्म और दुःखकी बात है। इस बारेमें यदि तुम्हारी ओरसे बचावके लिए कुछ कहनेको हो तो मुझे बताना।

गुजराती प्रति (एस० एन० १९३७५) की माइक्रोफिल्मसे।

१८३. पत्र : जयसुखलालको

साबरमती आश्रम
बुधवार, २४ मार्च, १९२६

चि० जयसुखलाल,

तुम्हारा पत्र मिला। भाई पुरुषोत्तम जोशीके बारेमें जो उचित जान पड़े सो करना। मेरे विचारानुसार तो, जैसा तुम लिखते हो, जिस व्यक्तिका वेतन चुका दिया गया हो और फिर नौकरी से निकल गया हो उसे खोये हुए कागजोंके लिए उत्तरदायी नहीं माना जा सकता। वह उन कागजोंको कहाँसे ढूँढ़कर निकाल सकता है? यदि खोये हुए कागजातके बारेमें रिपोर्ट तैयार करवाना चाहते हो, तो अलग बात है।

अमरेलीके कार्यालयके बारेमें चि० नारणदासकी टिप्पणी साथ भेज रहा हूँ। नारणदासके कथनानुसार तो तुम्हें जितने पैसे देना तय हुआ था, उससे ज्यादा तुम ले चुके हो और अब भी लेते ही रहते हो। यदि ऐसा ही है तो नहीं चल सकता। बाँधी हुई सीमासे आगे जानेके लिए तो तुम मुझे नहीं कह सकते। तुम्हें आँकड़े नियमित रूपसे भेजने ही चाहिए। यहाँसे पूछे बिना बम्बई हुण्डी लिखकर पैसा मत