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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

भेजने लगें तो वे वहाँ भजन-कीर्तन सीखेंगे और इस तरह राष्ट्रीय उन्नतिमें आप कुछ योग भी दे सकेंगे।

लेकिन हमें इससे भी आगे जाना चाहिए। यदि हम अपने करोड़ों घरोंमें संगीतका प्रवेश चाहते हों तो हम सब लोगोंको खादी पहननी होगी और चरखा चलाना होगा। खान साहबका आजका संगीत बहुत मधुर था, किन्तु उसे सुननेका सौभाग्य तो हमारे-जैसे चन्द लोगोंको ही मिल सकता है, सबको नहीं मिल सकता। किन्तु चरखेका संगीत तो हरएक घरमें सुलभ किया जा सकता है। इस चरखेके संगीतकी तुलना में वह संगीत तो कुछ भी नहीं है। कारण, चरखेका संगीत तो कामधेनु है। करोड़ोंका पेट भरनेका साधन है। मुझे तो उसमें सच्चा संगीत दिखता है। ईश्वर सबका कल्याण करे; सबको सन्मति दे।

हम संगीतका ऐसा संकुचित अर्थ न करें कि वह सवे हुए कंठसे शुद्ध स्वरमें तालके साथ गाने-बजानेका अभ्यास मात्र है। जीवनमें एकरागता और एकतानता होनेपर ही सच्चा संगीत प्रगट होता है। हृदयका कोई तार बेसुरा नहीं होता, तभी संगीतका जन्म होता है। जब सारे देश में करोड़ों लोग एक ही स्वरमें बोलने लगेंगे तब संगीतका हमारा यह प्रयोग सफल हुआ कहा जायेगा। मेरे विचारसे तो सच्चा संगीत खादीमें और चरखेमें समाया हुआ है। जबतक वह संगीत प्रगट नहीं हुआ है तबतक देश में अराजकता या कुराजकता रहनेवाली ही है और उसकी गुलामी हटनेवाली नहीं है।[१]

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ४-४-१९२६

१७४. पत्र : जमनालाल बजाजको

आश्रम
सोमवार, २२ मार्च, १९२६

चि० जमनालाल,

तुम्हारा और घनश्यामदासका तार मिला। उसका जवाब घनश्यामदासको दिया है। यह सारा कार्य शंकरलालका है। उनमें समझ कम है। लेकिन अब जो हुआ सो हुआ। ऐसा समझना कि जब भी तुम तैयार होगे मुझे तैयार ही पाओगे; लेकिन ३१ तारीखके बाद।

भाई प्यार अली और नूरबानो, जहाँ मैं गर्मी व्यतीत करूँ, वहीं व्यतीत करना चाहते हैं। उनके लिए अलगसे छोटा-सा बंगला अथवा दो-तीन कमरे मिलें तो भी काफी है। वे तो अपने खर्चपर रहना चाहते हैं। अब जैसा उचित लगे, वैसा करना।

 
  1. भाषणका यह अन्तिम अनुच्छेद गुजराती, २८-३-१९२६ से लिया गया है।