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भाषण: संगीतके बारेमें

है। हममें संगीतका अभाव है, इसीलिए हमें स्वराज्यके साधन प्रिय नहीं लगते, और इस अर्थमें प्लेटोका यह वचन बिलकुल सही है कि किसी समाजमें संगीतकी दशा देखकर उस समाजको राजकीय स्थितिका निश्चय किया जा सकता है। यदि हमारे जीवनमें संगीतका प्रवेश हो तो स्वराज्यका प्रवेश भी हो सकता है। जब करोड़ों लोग एक स्वरमें भजन गाना सीख लें, एक स्वरमें कीर्तन करने लगें या रामनामकी धुन बजाने लगें और एक भी बेसुरी आवाज न निकले तब हमारे जीवनमें संगीतका प्रवेश हुआ कहा जा सकता है। यदि हम इतनी आसान चीज भी सिद्ध नहीं कर सकते तो स्वराज्य कैसे पा सकते हैं?

पिछले तीन वर्षसे अहमदाबादमें संगीतकी कक्षाएँ चल रही है; शिक्षा निःशुल्क दी जाती है और शिक्षण देनेवाले पण्डितजी भी अपने विषयके जानकार हैं। फिर भी केवल ३२ विद्यार्थियोंने नाम लिखवाया और आज उनमें से सिर्फ दस हैं और इन दसमें से भी सिर्फ चार ही नियमित रूपसे आते हैं। यह स्थिति सन्तोषजनक नहीं कही जा सकती, लेकिन हम आशा रख सकते हैं कि उसमें सुधार होगा। और डॉ० हरिप्रसाद तो—जिन्हें अहमदाबादकी सैकड़ों गलियोंमें से किसी एकको भी साफ-सुथरा देखकर आशाकी किरणके दर्शन होने लगते हैं—शायद इस स्थितिमें सन्तोष भी मान सकते हैं कि हमारे यहाँ ऐसे चार संगीत प्रेमी तो हैं जो उसे नियमसे सीखते हैं।

जहाँ दुर्गन्ध है, वहाँ संगीत नहीं हो सकता। सुगंध भी संगीतका एक रूप है, यह हमें समझ लेना चाहिए। सामान्यतः हम सुरीली आवाजको ही संगीत कहते हैं। किन्तु यदि हम संगीतका व्यापक अर्थ करें तो देखेंगे कि जीवनका कोई भाग ऐसा नहीं है, जिसमें संगीतको आवश्यकता न हो। आज तो संगीत स्वेच्छाचारका समकक्ष हो गया है। चरित्रहीन स्त्रियोंके नाच-गानको संगीत मान लिया जाता है। हमारी माँ-बहनें तो बेसुरा ही गाती हैं। वे संगीत सीखें तो यह लज्जाकी बात मानी जाती है। इस तरह, संगीत सत्संगके अभाव में अप्रतिष्ठित हो गया है और इसलिए डॉ० हरिप्रसादको दस विद्यार्थियोंसे ही सन्तोष मानना पड़ा है।

सच पूछिए तो संगीत प्राचीन और पवित्र वस्तु है। हमारे 'सामवेद 'की ऋचाएँ संगीतकी खान हैं। 'कुरान शरीफ' की एक भी आयत ऐसी नहीं जो सुरके बिना गायी जा सकती हो। और ईसाई धर्ममें डेविडके 'साम' (गीत) सुननेपर तो ऐसा लगता है, मानो हम 'सामवेद का गान सुन रहे हों। किन्तु आज तो गुजरात संगीतहीन हो गया है। यदि हम इस दोषसे मुक्त होना चाहते हों तो इस संगीत-मण्डलको हमें बढ़ावा देना चाहिए।

संगीत में हम हिन्दुओं और मुसलमानोंका मिलन देखते हैं। हिन्दू गाने-बजानेवालोंके साथ बैठकर मुसलमान गाने-बजानेवाले गाते-बजाते हैं। किन्तु वह शुभ दिन कब आयेगा जब राष्ट्रीय जीवनके दूसरे क्षेत्रों में भी इस मिलन-संगीतके दर्शन करेंगे? उस दिन हम राम और रहमानका नाम साथ-साथ लेंगे।

आप लोग संगीतको जो थोड़ी-बहुत तरजीह देते हैं, उसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। आप अपने बच्चोंको, लड़कों और लड़कियोंको और ज्यादा संख्या में